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शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

दीपावली पर सिसकते दीये

दीपों के पर्व दीपावली की चारों ओर धूम मची हुई है। शेयर बाजार आसमान पर चढ़कर हमारी आर्थिक समृद्धि का उद्घोष कर रहा है! सरकारी आंकड़ों की बाजीगAरी से देश की विकास दर बढ़ रही है लेकिन जमीन पर गरीबी अपना तांडव नृत्य कर रही है। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया व अखबार विलासिता के उत्पादों के विज्ञापनों से भरे हुए हैं। कहीं सोने की गिन्नी बिक रही है तो कहीं जड़ाऊ आभूषण। एलसीडी टीवी के साथ ही मंहगे परिधानों की एक से एक बढ़कर दिलकश रेंज है। महंगी कारों की बिक्री के रिकार्ड टूट रहे हैं। अतः दीपावली को देखकर लगता नहीं कि यहां कोई गरीबी है। चारों ओर देखकर मन भ्रमित हो जाता है कि किस प्रकार लक्ष्मी पैसों की मुक्त हस्त से बरसात कर रहीं हैं। इस जगमग और चकाचौंध से परे हटकर हम उन मलिन बस्तियों व गांवों को देखें जहां आज भी दो जून की रोटी के लाले पड़े हैं। गर्मियों में वह प्यासा मरता है क्योंकि उसके पास पानी खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। अब वह ठंड में वस्त्रों के अभाव में जान देगा। दवा-दारू के बिना तो वह हर समय मरता ही रहता है। वैसे भी गरीब की यही नियति है कि वह चाहे अकाल से मरे, बाढ़ अथवा भूकंप से मरे। भूखा मरे या प्यासा मरे। हमारे निजाम को इसकी कोई चिंता नहीं है। अखिर दीवाली का क्या यही संदेश है कि हमस ब घरों की रोशनी को छीनकर अपने घरों में कैद कर लें और इतना पुखता इंतजाम कर लें कि समृद्धि और शांति की एक भी किरण उन मजलूमों के घर नहीं पहुंचे ? आखिर कौन सुनेगा इनकी फरियाद ? अब त्रेता तो है नहीं कि श्रीराम बालि और रावण की भांति गरीबी और भ्रष्टाचार का वध कर दें। द्वापर भी नहीं है कि कृष्ण-कन्हैंया अपनी मुरली की तान से हमारे सारे कष्टों को हर लें। अब जमाना न किसी भगवान का है और न किसी राजा का। प्रजा ही राजा का चुनाव करती है। इतनी शक्तिशाली होने के बाद भी वह आज भूख और लाचारी से क्यों चीत्कार कर ही है। इस प्रश्न पर चिंतन करना होगा कि आखिर गलती कहां हो रही है ? उसके हितों पर डाका कौन डाल रहा है। लगता है कि हमारे नेताओं और समाजसेवियों की प्राथमिकता सूची से गरीब गायब है। तभी तो सारी योजनाओं का लाभ उस वर्ग को मिल रहा है जिसके पास पहले से ही सब कुछ है। ऐसा नहीं है कि हमारी सरकारें इन गरीबों की खुशी के लिए कुछ नहीं कर रहीं लेकिन उस विकास के दीपक को दलालों और भ्रष्ट नौकरशाही ने अपना गुलाम बना लिया है। परंतु अफसोस इस बात का है कि आम लोगों की दीवाली छीनने वाले निर्मम और क्रूरता की पराकाष्ठा पार कर रहे हैं। मिलावट ने इस पर्व को बेरौनक और अपावन बना दिया है। आज लोग देशी घी के दीपक के स्थान पर चर्बी का दीपक जलाने का विवश हैं। सिंथेटिक मिठाइयों से लक्ष्मी-गणेश का भोग लगाने को अभिषप्त हैं। जब तक ऐसे तत्व दीपावली के पर्व को कलंकित करते रहेंगे तो कहां मिटेगा अंधकार। एक बात हम बड़े गर्व से कहते हैं कि वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा के हमीं सर्जक है। अगर है तो वह यथार्थ में क्यों नहीं दिखाई देता। आखिर गरीब कब तक इंतजार करता रहेगा सच्ची दीपावली का। जब उसके यहां ज्ञान, धन और सम्मान की किरणें जगमग होंगी। उसके बच्चे किसी अमीर के बच्चों को पटाखें या फुलझड़ी चलाते बेवसी से नहीं निहारेंगे। वह भी फटे चिथड़ों के स्थान पर नये वस्त्र पहनकर लक्ष्मीजी की पूजा अर्चना करेंगे। वास्तव में सच्ची दीपावली तभी होगी जब हर व्यक्ति खुशहाल होगा। सत्य, अहिंसा, दया, करुणा और मैत्री की धारा बहेगी। हर अंधेरे में दीपक जलेगा और अज्ञान रूपी अंधकार को चीरेगा। मिलावटखोरी का अंत होगा। भ्रष्टाचार का खात्मा होगा। दरिद्र पर नारायण की कृपा होगी। अपमान, सम्मान में बदलेगा। अभाव का सिसकता चेहरा खुशी से दमकेगा। समाज में असमानता के स्थान पर समरसता अपना परचम लहरायेगी।

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