किसी भी कवि सम्मेलन को देखो अथवा मुशायरे को। वहां इस अदब के नामचीन लोग मिल जायेंगे। किसी का नाम भोंपू है तो कोई पागल है। कोई सरोज है तो कोई रंजन। कोई संन्यासी है तो कोई निखिल संन्यासी। लेकिन इस सच्चाई को बहंत कम लोग ही जानते होंगे कि इनके असली नाम कुछ और है और साहित्यिक अथवा मंचीय नाम कुछ और। लेकिन यह लोग साहित्यिक जगत में इन्हीं उपनामों से चर्चित हैं। यही स्थिति उर्दू शायरों की है। इनके उपनाम अथवा तखल्लुस भी इनके मूल नामों से सर्वथा भिन्न हैं। वस्तुतः भाषा किस प्रकार दूसरी भाषा पर अपना अटूट प्रभाव डालती हैं। इसका साक्षात उदाहरण है उर्दू शायरी में तखल्लुस और हिंदी कविता में उपनाम। कहा जाता है कि तखल्लुस की शुरूआत उर्दू शायरी के जन्म से ही है। पहले शायर दक्षिण के एक शासक वली दक्खिनी थे। उर्दू में शायद ही कोई ऐसा शायर होगा जिसका तखल्लुस न हो। जैसे बहादुरशाह जफर, रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, आलम फतेहपुरी, मोहम्मद इकबाल हुसैन उर्फ खलिस अकबराबादी, अबरार अहमद उर्फ गौहर अकबराबादी आदि नामों की लम्बी श्रृंखला है। हिंदी में मिलन, सरित, प्रेमी, रंजन, विभोर, बिरजू, आजाद, दानपुरी, दिलवर, संघर्ष, राज, सहज आदि उपनाम ताजनगरी में चर्चित हैं।
आखिर क्या कारण था कि रचनाकारों को अपना उपनाम अथवा तखल्लुस रखना पड़ा। एक जनवादी कवि जो स्वयं अपना नाम बदल कर उपनामधारी हो चुके हैं। उनका कहना है कि हिंदी में अधिकांश गैर ब्राह्मण कवियों ने ही अपने नाम के पीछे उपनाम लगाये। इसका कारण यह था कि ब्राह्मण को तो जन्मजात् योग्य व विद्वान माना जाता है। अतः उन्हें अपना मूल नाम अथवा जातिसूचक शब्द हटाने की आवश्यकता ही नहीं थी। लेकिन गैर ब्राह्मणों के साथ यह संभवतः मजबूरी रही होगी। यही कारण है कि हिंदी कवियों में बहुतायत में गैर ब्राह्मणों ने ही उपनामों को अपनाया है। महाकवि निराला के बारे में यह स्पष्ट ही है कि उनका पूरा नाम सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ था।
उपनामों के बारे में एक अभिमत यह भी है कि अधिकांश मंचीय लोगों ने अपने उपनाम इसलिए रखे जिससे वह जनता में शीघ्र ही लोकप्रिय हो जाये। लोकप्रियता में उनके मूल नाम आड़े न आयें। यही कारण है कि गोपाल प्रसाद सक्सैना को पूरा देश नीरज के नाम से ही जानता है। व्यंकट बिहारी को पागल के नाम से, प्रभूदयाल गर्ग को काका हाथरसी, देवीदास शर्मा को निर्भय हाथरसी तथा राज कुमार अग्रवाल को विभांशु दिव्याल के नाम से हिंदी मंच जानता है।
हां इसका अपवाद भी है पं. प्रदीप। जिन्होंने अपने द्वारा रचित भजन और फिल्मी गीतों से देश में धूम मचा दी थी। हे मेरे वतन के लोगों जरा आंखों में भर लो पानी.......जैसे अमर गीत के प्रणेता का वास्तविक नाम पं. रामचन्द द्विवेदी था लेकिन फिल्मी दुनियां में यह नाम अधिक लोगों की जुबां पर शायद ही चढ़ पाये इसलिए उन्हें प्रदीप के नाम से ही मशहूरी मिली। हिंदी रचनाकार पाण्डेय बैचेन शर्मा ‘उग्र‘ व चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी‘ आदि ने उपनाम भले ही लगाया हो लेकिन वह अपने ेजातिसूचक शब्दों का जरूर प्रयोग करते रहे। हिंदी में श्यामनारायण पाण्डेय, सोहन लाल द्विवेदी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत आदि ने कभी भी अपनामों का सहारा नहीं लिया और अपने मूल नामों से ही हिंदी जगत पर छाये रहे।
जहां तक उर्दू शायरी का सवाल है। इसमें अधिकांश शायर अपने जन्मस्थानसूचक शब्द का ही अधिक प्रयोग करते हैं। जैसे दिल्ली में जन्मे शायर देंहलवी, आगरा के अकबराबादी, बरेली के बरेलवी, लुधियाना के लुधियानिवी, गोरखपुरी, जयपुरी आदि। इसके विपरीत उर्दू शायरी में ऐसे कुछ ही शायर भी हैं जो अपने जन्मस्थान सूचक शब्द को अपने नाम के आगे लगाने में परहेज करते हैं। जैसे के.के. सिंह मयंक, कृष्ण बिहारी नूर, बशीर वद्र आदि।
मशहूर कवि और कथाकार रावी का वास्तविक नाम रामप्रसाद विद्य़ार्थी था। हिंदी जगत के प्रसिद्ध कवि सोम ठाकुर पहले सोम प्रकाश अम्बुज के नाम से जाने जाते थे। इसी प्रकार डा. कुलदीप का मूल नाम डा. मथुरा प्रसाद दुबे थाा। इसी प्रकार वरिष्ठ गीतकार चौ. सुखराम सिंह का सरकारी रिकार्ड में नाम एस.आर. वर्मा है। निखिल संन्यासी के नाम से चर्चित कवि का मूल नाम गोविंद बिहारी सक्सैना है। इसी प्रकार चर्चित गजलकार शलभ भारती का मूल नाम रामसिंह है। इसी श्रंखला में सुभाषी (थानसिंह शर्मा), पंकज (तोताराम शर्मा), रमेश पंडित (आर.सी.शर्मा), एस.के. शर्मा (पहले शिवसागर थे अब शिवसागर शर्मा), डा. राजकुमार रंजन (डा. आरके शर्मा) कैलाश मायावी (कैलाश चौहान) दिनेश संन्यासी (दिनेश चंद गुप्ता), पवन आगरी ( पवन कुमार अ्रग्रवाल), अनिल शनीचर (अनिल कुमार मेहरोत्रा), सुशील सरित (सुशील कुमार सक्सैना), हरि निर्मोही (हरिबाबू शर्मा), राजेन्द्र मिलन (राजेन्द्र सिंह), पहले रमेश शनीचर अब रमेश मुस्कान (रमेश चंद शर्मा) ओम ठाकुर (ओम प्रकाश कुशवाह) राज (एक का नाम राजबहादुर सिंह परमार है तो दूसरे राज का मूल नाम राजकुमार गोयल ह)
आखिर क्या कारण था कि रचनाकारों को अपना उपनाम अथवा तखल्लुस रखना पड़ा। एक जनवादी कवि जो स्वयं अपना नाम बदल कर उपनामधारी हो चुके हैं। उनका कहना है कि हिंदी में अधिकांश गैर ब्राह्मण कवियों ने ही अपने नाम के पीछे उपनाम लगाये। इसका कारण यह था कि ब्राह्मण को तो जन्मजात् योग्य व विद्वान माना जाता है। अतः उन्हें अपना मूल नाम अथवा जातिसूचक शब्द हटाने की आवश्यकता ही नहीं थी। लेकिन गैर ब्राह्मणों के साथ यह संभवतः मजबूरी रही होगी। यही कारण है कि हिंदी कवियों में बहुतायत में गैर ब्राह्मणों ने ही उपनामों को अपनाया है। महाकवि निराला के बारे में यह स्पष्ट ही है कि उनका पूरा नाम सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ था।
उपनामों के बारे में एक अभिमत यह भी है कि अधिकांश मंचीय लोगों ने अपने उपनाम इसलिए रखे जिससे वह जनता में शीघ्र ही लोकप्रिय हो जाये। लोकप्रियता में उनके मूल नाम आड़े न आयें। यही कारण है कि गोपाल प्रसाद सक्सैना को पूरा देश नीरज के नाम से ही जानता है। व्यंकट बिहारी को पागल के नाम से, प्रभूदयाल गर्ग को काका हाथरसी, देवीदास शर्मा को निर्भय हाथरसी तथा राज कुमार अग्रवाल को विभांशु दिव्याल के नाम से हिंदी मंच जानता है।
हां इसका अपवाद भी है पं. प्रदीप। जिन्होंने अपने द्वारा रचित भजन और फिल्मी गीतों से देश में धूम मचा दी थी। हे मेरे वतन के लोगों जरा आंखों में भर लो पानी.......जैसे अमर गीत के प्रणेता का वास्तविक नाम पं. रामचन्द द्विवेदी था लेकिन फिल्मी दुनियां में यह नाम अधिक लोगों की जुबां पर शायद ही चढ़ पाये इसलिए उन्हें प्रदीप के नाम से ही मशहूरी मिली। हिंदी रचनाकार पाण्डेय बैचेन शर्मा ‘उग्र‘ व चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी‘ आदि ने उपनाम भले ही लगाया हो लेकिन वह अपने ेजातिसूचक शब्दों का जरूर प्रयोग करते रहे। हिंदी में श्यामनारायण पाण्डेय, सोहन लाल द्विवेदी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत आदि ने कभी भी अपनामों का सहारा नहीं लिया और अपने मूल नामों से ही हिंदी जगत पर छाये रहे।
जहां तक उर्दू शायरी का सवाल है। इसमें अधिकांश शायर अपने जन्मस्थानसूचक शब्द का ही अधिक प्रयोग करते हैं। जैसे दिल्ली में जन्मे शायर देंहलवी, आगरा के अकबराबादी, बरेली के बरेलवी, लुधियाना के लुधियानिवी, गोरखपुरी, जयपुरी आदि। इसके विपरीत उर्दू शायरी में ऐसे कुछ ही शायर भी हैं जो अपने जन्मस्थान सूचक शब्द को अपने नाम के आगे लगाने में परहेज करते हैं। जैसे के.के. सिंह मयंक, कृष्ण बिहारी नूर, बशीर वद्र आदि।
मशहूर कवि और कथाकार रावी का वास्तविक नाम रामप्रसाद विद्य़ार्थी था। हिंदी जगत के प्रसिद्ध कवि सोम ठाकुर पहले सोम प्रकाश अम्बुज के नाम से जाने जाते थे। इसी प्रकार डा. कुलदीप का मूल नाम डा. मथुरा प्रसाद दुबे थाा। इसी प्रकार वरिष्ठ गीतकार चौ. सुखराम सिंह का सरकारी रिकार्ड में नाम एस.आर. वर्मा है। निखिल संन्यासी के नाम से चर्चित कवि का मूल नाम गोविंद बिहारी सक्सैना है। इसी प्रकार चर्चित गजलकार शलभ भारती का मूल नाम रामसिंह है। इसी श्रंखला में सुभाषी (थानसिंह शर्मा), पंकज (तोताराम शर्मा), रमेश पंडित (आर.सी.शर्मा), एस.के. शर्मा (पहले शिवसागर थे अब शिवसागर शर्मा), डा. राजकुमार रंजन (डा. आरके शर्मा) कैलाश मायावी (कैलाश चौहान) दिनेश संन्यासी (दिनेश चंद गुप्ता), पवन आगरी ( पवन कुमार अ्रग्रवाल), अनिल शनीचर (अनिल कुमार मेहरोत्रा), सुशील सरित (सुशील कुमार सक्सैना), हरि निर्मोही (हरिबाबू शर्मा), राजेन्द्र मिलन (राजेन्द्र सिंह), पहले रमेश शनीचर अब रमेश मुस्कान (रमेश चंद शर्मा) ओम ठाकुर (ओम प्रकाश कुशवाह) राज (एक का नाम राजबहादुर सिंह परमार है तो दूसरे राज का मूल नाम राजकुमार गोयल ह)
बहुत ज्ञानवर्धक लेख है, साथ ही रोचक भी । आभार ।
जवाब देंहटाएंआभार ।
जवाब देंहटाएंshekhar kumawat
शानदार जानकारी
जवाब देंहटाएंतखल्लुस और तखय्युल में क्या फर्क है
जवाब देंहटाएंतखल्लुस और तखय्युल में क्या फर्क है
जवाब देंहटाएंसारगर्भित जानकरी
जवाब देंहटाएं