’’वे धन्य हैं, जो यह अनुभव करते हैं कि जिन लोगों में हमारा जन्म हुआ। उनका उद्धार करना हमारा कर्तव्य है। वे धन्य हैं, जो गुलामी का खात्मा करने के लिए अपना सब कुछ निछावर करते हैं। और धन्य हैं वे, जो सुख और दुःख, मान और अपमान, कष्ट और कठिनाइयां, आंधी और तूफान-इनकी बिना परवाह किये तब तक सतत् संघर्ष करते रहेंगे, जब तक कि अछूतों को मानव के जन्मसिद्ध अधिकार पूर्णतया प्राप्त न हो जायें।’’
युगांतरकारी व्यक्तित्वों की श्रृंखला में डा. भीमराव अम्बेडकर का नाम अग्रणी है। उन्होंने आजीवन गैर बराबरी तथा मानवता के लिए संघर्ष किया। सदियों से शोषित और उत्पीड़ित दलितों के जीवन में एक नया अध्याय जोड़ा। यह उनके संघर्ष का ही परिणाम है कि आज दलित देश की सत्ता में सक्रिय भागीदारी कर रहे हैं। भारतीय संविधान के माध्यम से उन्होंने दलितों के लिए जो आरक्षण का प्रावधान कराया। उससे ही दलितों के भाग्य का सूूरज उदय हुआ जो आज विभिन्न क्षेत्रों में दैदीप्यमान हो रहा है।निःसंदेह डा. अम्बेडकर दलितों के मसीहा थे। उनके दिलो-दिमाग में दलितों की जाति विशेष न होकर सम्ूपर्ण दलित वर्ग था जो जलालत की जिंदगी व्यतीत कर रहा था। शिक्षित बनो, संगठित रहो तथा संघर्ष करो के मूल मंत्र के आधार पर उन्होंने दलितों में स्वाभिमान की भावना पैदा की। वह राजनीतिज्ञ की अपेक्षा समाज सुधारक थे। उनका जीवन दलितों के उत्थान और विकास को समर्पित था। अफसोस इस बात का है कि उनकी मृत्यु के बाद दलित आंदोलन बिखर गया। वह दिशाहीन हो गया तथा सत्ता के लिए डा. अम्बेडकर के सपनों से बलात्कार करके कुर्सी पाने में अधिक सक्रिय रहा। जिस मनुवाद और ब्राह्मणबाद के वह आजीवन विरोधी थे। उनके कथित अनुयायियों ने उसको फलने-फूलने का अवसर दिया। सत्ता के लिए उनके सिद्धांतों की बलि चढ़ायी। यही कारण है कि आज दलितों का कोई सर्वमान्य नेता अथवा मसीहा नहीं है। अगर हैं भी तो दलितों की जाति विशेष के हैं। दलित आंदोलन के पतन का मुख्य कारण इस वर्ग के नेताओं की दिशाहीनता तथा स्वार्थपरता रही। यह लोग आज भले ही उनकी जयंती जोर-शोर से मना रहे हों लेकिन वस्तुतः वह उनके सिद्धांतों की हत्या कर रहे हैं। यही कारण है कि आजतक दलित वर्ग एकजुट नहीं है। उनका कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। किसी भी दलित राजनेता के पास दलितों के लिए कोई एजेंडा नहीं है। आज भी दलित एक वर्ग के रूप में संगठित नहीं हो पाया है। जिस छूआछात के खिलाफ डा. अम्बेडकर आजीवन लड़ते रहे आज दलित वर्ग भी दलित और महादलित के रूप में विभक्त हो गया है। उनका आपस में कोई तालमेल नहीं है। दलितों में भी ऊंच-नीच की भावना बड़ी तेजी से पनपती जा रही है। लगभग हर दलित जातियों के अलग-अलग संगठन हैं। अपने-अपने आराध्य हैं। अपने-अपने सिद्धांत हैं। अपनी-अपनी परम्पराएं हैं। आखिर जब दलित एकजुट नहीं होंगे तो उनका आंदोलन कैसे चलेगा और कैसे उनकी स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन होगा।दलितों में भी महादलित वाल्मीकि जाति आज भी मनसा-वाचा-कर्मणा से डा. अम्बेडकर को स्वीकार नहीं कर पाई है। उनके आराध्य महर्षि वाल्मीकि हैं। वह हिंदू धर्म की सभी मान्यताओं को मानते हैं और अपने हिंदू होने पर गर्व महसूस करते हैं। इसके विपरीत दलितों की जाटव जाति के लोग हिंदू धर्म से विमुख हैं। वह अम्बेडकर द्वारा अपनाये गये बौद्ध धर्म की विचारधारा के अधिक नजदीक हैं। कोरी, खटीक, धोबी आदि दलित जातियों में अम्बेडकर की विचारधारा आज तक नहीं पहुंची है। इसके लिए वह दलित नेता अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकते जो अपने को डा. अम्बेडकर का अनुयायी मानते हैं। उनके मिशन को आगे बढ़ाने का दावा करते हैं। यही कारण है कि डा. अम्बेडकर जयंती में सम्पूर्ण दलितों की भागीदारी नहीं होती अपितु इसमें जाटव जाति का हर्षोल्लास अधिक दिखाई पड़ता है। दलितों के समाज सुधार का आंदोलन दम तोड़ चुका है। वह दिशाहीन और दिशाभ्रमित है। इसी लिए दलितों में हताशा और निराशा का भाव समाहित है।वस्तुतः दलितों में भी एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है जिसने आरक्षण के माध्यम से ऊंची-ऊंची नौकरियां हासिल की हैं। आरक्षण के कोटे के कारण बड़े-बड़े ओहदे हासिल किए हैं। मंत्री, सांसद और विधायक हैं। यह लोग दलित को मिलने वाले हर लाभ को अजगर की भांति निगल रहे हैं। जिस समाज से यह आये हैं। उस दीन-हीन और वंचित समाज के लिए इनके दिल में संवेदनशून्यता का भाव है। इन पढ़े-लिखे और साधन-संपन्न लोगों ने डा. अम्बेडकर के आंदोलन की हत्या की है। उनके कारवां को रोका है। अगर सुविधाओं से वंचित दलितों की आंखें खुल गई तो वह इस नवधनाढ्य-अफसरी वर्ग को माफ नहीं करेगा।डा. अम्बेडकर व्यक्ति पूजा के खिलाफ थे। वह नहीं चाहते थे कि उनकी पूजा हो। उनकी मूर्तियों लगें और लोग उन्हें भगवान मानें। इस संदर्भ में उन्होंने 14 अप्रैल 1942 में मुम्बई के परेल में अपनी जयंती पर आयोजित विराट सभा को संबोधित करते हुए कहा था - ’’नेता योग्य हो, तो उसके प्रति आदर प्रकट करने में कोई हर्ज नहीं, परंतु मनुष्य को ईश्वर के समान मानना विनाश का मार्ग है। इससे नेता के साथ ही साथ उसके भक्तों का भी अधःपात होता है ? इसलिए मैं चाहता हूं कि मेरा जन्म दिवस मनाने की प्रथा बंद कर दी जाय।’’
आवश्यकता इस बात की है कि अगर डा. अम्बेडकर के जाति-विहीन, शोषणविहीन तथा समतायुक्त समाज की संरचना करनी है तो हमें आत्मचिंतन करना पड़ेगा। इस देश का बहुत बड़ा नुक्सान जातिवाद से हुआ है। समाज जातियों में बड़ी तेजी से बंटता जा रहा है। जातिय संगठन इतने प्रभावशाली हो गए हे कि वह सरकार तक को चुनौती देने लगे हैं। राजनीति जातिवाद के भंवरजाल में फंस चुकी है। शोषक लोग एकजुट होकर लोकतांत्रिक संस्थानों पर योजनाबद्ध तरीके से कब्जा करने में लगे हैं। समानता और समता बेमानी हो गया है। इसके लिए चिंतनशील व संघर्षशील लोगों को आगे आना होगा।
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