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शुक्रवार, 28 मई 2010

पानी पर होगा युद्ध


इस समय समूचा देश जल संकट से त्राहि-त्राहि कर रहा है। अगर यही आलम रहा तो पानी ही लड़ाई का प्रमुख कारण बन जायेगा। क्योंकि जीने के लिए भोजन से भी अधिक पानी की जरूरत होती है। आश्चर्य इस बात का है कि इस भयावहता की ओर न तो सरकार का ध्यान है और न ही जनता का। वह किसी चमत्कार का इंतजार कर रही है। अगर समय रहते हम नहीं चेते तो निश्चित रूप से इस महान देश पानी के अभाव में काल-कवलित हो जायेगा।
बढ़ते औद्योगीकरण तथा हरित क्रांति का सबसे बड़ा भार पानी पर पड़ा है। हमारी नदियां गंदे नाले में परिवर्तित हो गयीं हैं। गांव और शहरों का सारा कूड़ा-कचरा तथा सीवर नदियों में बेखौफ प्रभाहित की जा रही है। भूगर्भ जल का अत्यधिक दोहन करने से उसके जलस्तर में निरंतर गिरावट आ रही है। वर्षा के जल का हम संचय नहीं कर रहे। तालाबों और पोखरों पर हमने कब्जा करके आलीशान इमारतें खड़ी कर ली हैं। नदियों के पाट पर भी हम डायनासोर की तरह फैेलते जा रहे हैं। इस चिंतनीय स्थिति की ओर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। सन् 1947 में देश मे प्रतिव्यक्ति जल की उपलब्धता 6000 घनमीटर थी जो कि 2017 तक घटकर मात्र 1600 घनमीटर रह जायेगी। ताजे जल का एक मात्र स्रोत भूगर्भ जल, जो पीने के अतिरिक्त कृषि और उद्योग के उपयोग में आता है। हरित क्रांति के बाद भूगर्भ जल का अत्यधिक मात्रा में दोहन हआ है। पंजाब-हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जिन्होंने हरित क्रांति में अर्वाधिक फायदा उठाया, वही बेतहाशा नलकूपों के लगने से भूमिगत जल के स्रोत लगभग समाप्त होने की स्थिति में पहुंच गये हैं। भूमिगत जल के अत्यधिक नीचे जाने से पानी में लवण की मात्रा भी काफी बढ़ गई है। सिंचाई हेतु जो नहरें बनाई गई थीं, उनका पचास फीसदी पानी ही वास्तविक रूप से सिंचाई के लिये प्रयुक्त हो पाता है। मौसम परिवर्तन की वजह से वर्षा भी कम जोती जा रही है। जहां सबसे अधिक पानी बरसता था, वो भी पेयजल संकट से ग्रसित हो गये हैं। इजरायल जहां वर्षा का औसत महज 25 सेमी है। उनसे हमें सबक लेना चाहिए कि वे जल की एक-एक बूंद की कीमत समझते हैं। इसके विपरीत भारत में वर्षा का औसत 115 सेमी है। जिसके मात्र पच्चीस फीसदी जल-संचय से हम पानी के संकट से मुक्ति पा सकते हैं। लेकिन हमारा 90 फीसदी वर्षा का जल नदियों के माध्यम से सागर में समा जाता है। इस ओर हमने कोई ध्यान नहीं दिया है। इस वर्षा जल को बचाने हेतु वाटर हार्वेस्टिंग को प्रोत्साहन, तालाब, पोखरों की सफाई, कुओं को रिचार्ज करना, बंजर भूमि व पहाड़ी ढालों पर वृक्षारोपण, कृषि के लिए उचित फसल चक्र अपनाने, पेयजल आपूर्ति करने वालली पाइप लाइनों की नियमित देखरेख आदि से जल-संरक्षण को नई दिशा दी जा सकती है। सरकार ने अभी तक भूजल संरक्षण के लिए अभी तक कोई कठोर कदम नहीं उठाये हैं। शहरों के मकानों में कुकुरमुत्तों की तरह लगे समरसेबिल भूजल का अत्यधिक अपव्यय कर रहे हैं। आर-ओ प्लांट अथवा जल बेचने वाले औद्योगिक संस्थानों में पिचहत्तर फीसदी अवशिष्ट जल बेकार चला जाता है। जरूरत इस बात की है कि सरकार जल संरक्षण को प्राथमिकता दे तथा कड़ाई से जल का दुरुपयोग करने वालों को दंडित करे। जनता को भी इस सच्चाई का समझना होगा कि हमारे द्वारा किये गये जल के अपव्यय का खामियाजा हमारी आगामी पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा।

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