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शुक्रवार, 4 जून 2010

ममता का परचम-कांग्रेस की विवशता


नगर निकायों के चुनाव में ममता बैनर्जी की पार्टी की भारी जीत ने उनके हौंसले बुलंद कर दिये हैं। इस जीत से आल्हादित होकर वह संप्रग सरकार को आंखे दिखा सकतीं हैं। वैसे भी ममता पर मनमोहन का कोई जोर नहीं है। वह गाहे-बगाहे उन्हें नकारती रहीं हैं। वैसे भी केन्द्रीय राजनीति ममता के एजेंडे में नहीं है। अपितु उनका असली टारगेट पश्चिम बंगाल से लाल रंग को साफ करना है। इसमें वह सफल होती दिखाई दे रहीं हैं। लोकसभा के चुनावों में भी वह अपना करिश्मा दिखा चुकी हैं। बदलते परिवेश में कांग्रेस को उनकी जरूरत है। ममता को कांग्रेस की कतई जरूरत नहीं है। नगर निकायों के चुनाव में उन्होंने अकेले लड़कर कांग्रेस को उसकी औकात दिखा दी। इसमें कोई दो राय नहीं कि ममता जनाधार वाली नेता हैं। सादगी, ईमानदारी से आपूरित उनकी राजनीति में माटी, मानुष के प्रति समर्पण स्पष्ट दिखाई देता है। अब कांग्रेस को सोचना होगा कि वह ममता को किस प्रकार अपने पाले में रखे। इस विजय से यह तो स्पष्ट हो गया कि अगर ममता संप्रग के साथ रहतीं हैं तो बंगाल के विधान सभा चुनाव में चुनावी गठबंधन ममता की शर्तों पर ही होगा। वह किसी भी कीमत पर कांग्रेस को बराबर का साझीदार नहीं बनाएंगी। पिछले घटनाक्रमों को देखें तो साफ दृष्टिगोचर होता है कि वह केन्द्रीय सरकार में अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये हुए हैं। विभिन्न केन्द्रीय मामलों में उनकी साफगोई और विरोधी विचारों से सभी अवगत है। अभी विगत दिनों हुए रेल दुर्घटना में गृहमंत्री द्वारा इसकी जांच सीबीआई से कराने की मांग को ठुकराने से कांग्रेस और ममता के मध्य खाई और चौड़ी हो गई है। अगर उनकी लोकप्रियता का यही आलम रहा तो वह विधानसभा चुनाव में अकेले ही वाममोर्चा का सफाया कर सकतीं हैं। ममता की यह जीत कांग्रेस के लिए शुभ संदेश नहीं है। अब उसे ममता को अपने साथ बांधे रखने में बहुत कठिनाई होगी। ममता भी आत्मविश्वास से लबरेज होकर कई केन्द्रीय फैसलों पर अपनी विचारधारा थोप सकतीं हैं। उनकी बातों को नजरअंदाज करना केन्द्रीय नेतृत्व के लिए आसान नहीं होगा। विधानसभा चुनाव में फैसले की चाबी ममता के हाथ में है और कांग्रेस को उनका फैसला मानने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। अगर कांग्रेस ममता से अलग होकर चुनाव लड़ी तो निश्चित है कि ममता संप्रग सरकार से अपना समर्थन वापस ले लें और मंत्रीपरिषद से बाहर आ जांये। अब कांग्रेस को अपनी सरकार चलाने के लिए मुलायम और लालू का समर्थन लेना अवश्यंभावी हो जायेगा। इसका संकेत सपा सुप्रीमों खुलेआम दे चुके हैं।

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