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शुक्रवार, 25 जून 2010

हाय गर्मी - तपन में झुलसता आदमी

भीषण गर्मी से लोग आकुल-व्याकुल हैं। न दिन के चैन और न रात को आराम। नींद हराम हो गई है इस भीषण गर्मी से। हर आदमी धनकुबेर तो हैं नहीं जो यूरोपीय देशों अथवा देश के ठंडे इलाकों में जाकर शीतलता से कुछ दिन बिताये। हालांकि गर्मी पहले भी पड़ती थी। लेकिन इसकी तीव्रता निरंतर बढ़ती जा रही है। न नदियों में पानी है और न छायादार पेड़। मानसून को दूर-दूर तक कोई नामोनिशां नहीं। कैसे जिंदा रहेंगे इस भीषण गमी में। यह प्रश्न मानव ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों को भी सता रहा है। आखिर क्या कारण है कि सूर्य की किरणें आग बरसा कर हमारे जनजीवन को तबाह कर रहीं हैं। कैसे मिलेगी इस भीषण तपन से निजात ?
बेतहाशा गर्मी बढ़ने का मुख्य कारण प्रदूषण है। जिस तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। उसी अनुपात में प्रदूषण अधिक फैल रहा है। यह प्रदूषण जब वायुमंडल में विचरण करता है तो सूरज की तपन को और अधिक प्रभावी कर देता है। प्रदूषण का मुख्य कारण जंगलों का कटान और कृषि भूमि का कंक्रीट के जंगलों में बदल जाना है। जनसंख्या नियंत्रण और वृक्षारोपण से ही तपन को रोका जा सकता है। सरकार और जनता को इस ओर समन्वित प्रयास करने होंगे।
हमारी आरामदायक और विलासी जीवन शैली के कारण पर्यावरण दूषित हो गया है। हम सिंथेटिक के कपड़े पहनते हैं। घरों में भी पर्दें आदि में उनका उपयोग होता है। बिना एसी और फ्रिज के हम नहीं रह सकते। जबकि इनसे निकलने वाली दूषित गैस वातावरण को दूषित कर देती है। हमारी बदलती जीवन शैली ने पर्यावरण का नाश किया है। अगर हम पुरानी जीवन शैली को अपना लें तो कुछ हद तक गर्मी की तपन से छुटकारा मिल सकता है। शहर में वाहनों का कम प्रयोग हो। एसी पर नियंत्रण हो तभी प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
बढ़ते शहरीकरण के कारण हम प्रकृति से दूर हो गये हैं। जब प्रकृति से दूर होते हैं तो हमें नाना प्रकार की परेशानियों से रूबरू होना पड़ता है। जिस तेजी से खेती की भूमि आवासीय क्षेत्रों में बदल रही है। इसी कारण गर्मी के तेबर सख्त होते जा रहे हैं।’’ हरियाली के स्थान पर सपाट मैदान में गर्मी का प्रभाव अधिक रहता है। पेड़ कट जाते हैं। हरी-भरी फसलें विदा हो जातीं हैं। जो सूरज की गर्मी को सोख सकते हैं। जब वही नहीं रहे तो गर्मी की भीषणता तो बढ़ेगी ही।
सरकारी भ्रष्टाचार के कारण वातावरण को शीतल करने वाले तालाब और पोखर विलुप्त हो गये हैं। उन पर बनी विशालकाय अट्टालिकाएं किसी सरकारी अमले को नहीं दीखतीं। गांवों के पोखरों पर दबंगों ने सरकारी कर्मियों की मिली भगत से कब्जा कर लिया है। फिर तो गर्मी की तीव्रता बढ़ेगी ही। अब शहरों में पुराने ताल-तालाब और गांवों में पोखरें नहीं दिखाई देतीं। निरंतर गिरते भूगर्भ स्तर से जमीन में नमी समाप्त हो गई है। अपनी दुर्दशा के लिए हम ही दोषी हैं।
आज हमें प्रकृति के जिस कोप का भाजन बनना पड़ रहा है। उसके लिए सरकार ही नहीं अपितु हम सभी जिम्मेदार हैं। हमारे जीवन में र्प्यावरण सुरक्षा का कोई स्थान नहीं है। न हम पेड़ पौधें की सोचते हैं और न ही वाहनों से निकली विषैली गैसों के दुष्प्रभाव के बारे में। इनकी अनदेखी की कीमत हम चुका रहे हैं। अगर हम पौधारोपण और उनकी देखभाल पर ध्यान दें। जल का अपव्यय कम करें तो निश्चित रूप से र्प्यावरण संतुलित होगा। परिणामस्वरूप हमें भीषण तपन से मुक्ति मिलेगी।

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