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मंगलवार, 6 जुलाई 2010

डा.महाराज सिंह परिहार के दो गीत



मेरा भारत सिसक रहा है


मौन निमंत्रण की बातें मत आज करो
अंधकार में मेरा भारत सिसक रहा है

सदियों से जो सतपथ का अनुगामी था
सत्य अहिंसा प्रेम सरलता का स्वामी था
आज हुआ क्यों शोर देश के चप्पे चप्पे
वनवासी का धैर्य आज क्यों दहक रहा है
प्रख्यात साहित्यकार काशीनाथ सिंह के साथ महाराजसिंह परिहार

होता सपनों का खून यहां लज्जा लुटती चौराहे पर
द्रोणाचार्य की कुटिल सीख से खड़ा एकलब्य दोराहे पर
महलों की जलती आंखों से कुटियाएं जल राख हुईं
और सुरा के साथ देश का यौवन चहक रहा है


यहां सूर्य की किरणें बंद हैं अलमारी में
यहां नित्य मिटतीं हैं कलिया बीमारी में
ज्हां वृक्ष भी तन पर अगणित घाव लिए हों
उसी धरा में शूल मस्त हो महक रहा है

नेह निमंत्रण की बातें स्वीकार मुझे
मस्ती राग फाग की भी अंगीकार मुझे
पर कैसे झुठलादूं मैं गीता की वाणी को
कुरुक्षेत्र में आज पार्थ भी धधक रहा है


मेरे भारत का पार्थ

कौन हमारे नंदनवन में बीज जहर के बोता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है

आज चंद्र की शीतलता आक्रांत हुई है।
किरणें रवि की भी अब शांत हुई है
मौन हवाएं भी मृत्यु को आमंत्रण देती
पाषाणी दीवारे भी अब नहीं नियंत्रण करती

शब्दकार भी आज अर्थ में खोता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है

हम भूल गये सांगा के अस्सी घावों को
भुला दिया हमने अपने पौरुष भावों को
दिनकर की हुंकार विलुप्त हुई अम्बर में
सीता लज्जित आज खड़ी है स्वयंवर में

राम-कृष्ण की कर्मभूमि में क्रन्दन होता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है

बौनी हो गई परम्परायें आज धरा की
लुप्त हो गयीं मर्यादाएं आज धरा की
मौन हो गयी जहां प्रेम की भी शहनाई
बेवशता को देख वेदना भी मुस्काई

रोटी को मोहताज वही जिसने खेतों को जोता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है

अब सत्ता के द्वारे दस्तक नहीं बजेगी
कदम-कदम पर अब क्रांति की तेग चलेगी
निर्धन के आंसू अगर अंगार बन गये
महलों की खुशियां भी उसके साथ जलेगी

देख दशा त्रिपुरारी का नृत्य तांडव होता है
अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर. रचनाएं अच्छी हैं. निरंतरता भरोसा जगाती है. बधाई.

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  2. अफसोस मेरे भारत का पार्थ अभी तक सोता है
    सटीक सामयिक चिंतन

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