बरसात का मौसम और ब्लॉगरों की महफिल। अजीब संयोग था। इस पर भी कविता की भीनी-भीनी फुहार। मन मयूरा नाच उठा। एक घंटे का कार्यक्रम कब तीन घंटे तक चलता रह़ा पता ही नहीं चला। दरअसल बात यह थी कि हमारे दिल के ब्लोगर भाई अविनाश वाचस्पति अपनी आगरा स्थित ससुराल सनूने यानी रक्षाबंधन पर बूरा खाने आये। इसी दिन डीएलए कार्यालय में उनसे मुलाकात हो गई। उसी दौरान डा। सुभाष राय से सलाह-मशविरे के दौरान यह राय बनी कि पच्चीस अगस्त को कहीं ब्लॉगरों की बैठक हो। स्थान लगभग तय हुआ सेंट जौंस क्रासिंग से आगे, लोहामंडी रोड पर श्याम होटल के भूतल स्थिति अनु शर्मा की अंग्रेजी सीखने संस्थान पर।
जैसे ही मैं कार्यक्रम स्थल पर पहुंचा। वहां डा; सुभाष राय, अविनाश वाचस्पति, मदन मोहन शर्मा *अरविंद* सहित शहर के चर्चित साहित्यकार डा. राजेन्द्र मिलन पहले से ही मौजूद थे। उसके बाद में ब्लॉगर व कवियों का आना आरंभ हुआ। व्यंग्याचार्य डा. राकेश शरद की कुछ ब्लॉग सम्बंधी जिज्ञासाओं के निवारण के लिए अविनाश जी ने कुछ टिप्स दिए। फिर इसके बाद शुरू हुआ कविताओं का दौर। इस अनौपचारिक व अध्यक्ष विहीन कवि गोष्ठी का शुभारंभ मदन मोहन अरविंद के भीगे आंचल में सिमटी सी बदली घर-घर घूम रही है, इकलौते चिराग की टिमटिम मौसम का रूख भांप रही थी, प्रस्तुत किया। गीत से हुआ। संजीव गौतम ने 'सोने चांदी सी कभी तांबे जैसी धूप........ तथा अविनाश जी ने लौकी पुराण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी। पुष्पेन्द्र शर्मा ने जीवन को परिभाषित किया-जिंदगी तलाश है किसी गुमशुदा की....। डा. केशव शर्मा ने ब्रज का लोकगीत तथा अनु शर्मा ने अपने मन की बात कही। डा. राजेन्द्र मिलन ने संचार क्रांति पर प्रहार करते कहा-मेरे भारत देश का अजब हुआ है हाल॥बातें तो सस्ती हुईं महंगी रोटी दाल तथा कमल आशिक 'करवटें बदलता रहा मैं रात भर - जाने क्यूं तड्फता रहा रात भर एवं डा. महाराज सिंह परिहार ने 'मौन निमंत्रण की बातें मत आज करो......व अरविंद समीर ने 'बुझादो शौक से मुझको...पेश किया। गोष्ठी को शिखर पर पहुंचाया अपने तीखे तेवरों से डा। त्रिमोहन तरल ने - छत पर टीन पुरानी उसको तड. तड. नहीं बजाओ, बरखा हौले हौले आओ.... तथा डा. सुभाष राय ने ' लोग जीने की रिहर्सल कर रहे हैं, एक नाटक है जहां मुर्दे भी चल रहे हैं प्रस्तुत किया।
आभार इस रिपोर्ट का.
जवाब देंहटाएंभाई अविनाश वाचस्पति का सान्निध्य और ब्लॉग़-टिप्स आगरावासियों को मिले, इसके लिए उनके भाग्य को सराहा जाना चाहिए। वैसे भी घी-बूरा दिल्ली के चरित्र में नहीं है। यहाँ का सामाजिक पर्यावरण दरअसल बूराविहीन(शुगरलैस अथवा लैस-शुगर)वाला होकर रह गया है।
जवाब देंहटाएंपढ़ चले हम भी।
जवाब देंहटाएंसादर आभार।। जय ब्लागर।।
जवाब देंहटाएंआपकी रिपोर्ट ने एक मीठी यादगार को और भी यादगार बना दिया.
जवाब देंहटाएंपढकर अच्छा लगा !!
जवाब देंहटाएंवाह वाह, अविनाश जी सनूने पर अकेले अकेले ही घी-बूरा खा आए।
जवाब देंहटाएंहमें याद भी नहीं किया।
ब्लागर मिलन पर शुभकामनाएं।
वाह जी बल्ले-बल्ले इस बार आगरे में ! बहुत अच्छे.
जवाब देंहटाएंपर फ़ोटो छापने में इतनी कंजूसी क्यूं...आजकल तो फ़ोटो का ख़र्च भी ज़ीरो है..
good
जवाब देंहटाएंआगरा मीट की रिपोर्टिंग बढ़िया रही ... आभार
जवाब देंहटाएंवाह ! क्या खूब , आगरा मीट पढकर अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया....... इसी तरह लोग मिलते रहे और प्रेम बढ़ता रहे...... बहुत-बहुत शुभकामनाएं....
जवाब देंहटाएंबढ़िया रिपोर्ट डॉ परिहार जी. बधाई
जवाब देंहटाएंAgra ke nam ne hi meka yad kara diya.report dekh kar achcha laga.
जवाब देंहटाएंpavitra agrawal