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सोमवार, 28 जून 2010

कौन देगा इन सवालों का जवाब

इस समय देश संक्रमण काल से गुजर रहा है। समस्याओं से जूझता देश किस प्रकार अपना चहुमुखी विकास कर पाएगा। इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है। केवल गाल बजा देने से काम नहीं चलेगा कि शेयर मार्केट ऊंचाइयों पर है और हमने अपनी विकास दर में आशातीत वृद्धि की है। वास्तविकता यह है कि कमर तोड़ मंहगाई के कारण देश की अधिकांश आबादी भुखमरी का शिकार हो रही है।
ऐसा नहीं कि हम मंहगाई रोक नहीं सकते ? मूल्यों पर नियंत्रण नहीं कर सकते ? मुनाफाखोरी पर लगाम नहीं लगा सकते ? सच्चाई यह है कि हमारे शासन और प्रशासन में ऐसे लोगों का वर्चस्व है जिनका कभी आटे-दाल के भाव से पाला नहीं पड़ा। पड़ा होगा कभी लेकिन अब तो इन्होंने इतनी अकूत धन संचय कर रखा है कि मंहगाई का प्रश्न उन्हें बेतुका और अवांछनीय लगता है।
बड़े जोर-शोर के मध्य न्यूयार्क में गत वर्ष विश्व हिंदी सम्मेलन संपन्न हुआ। जैसा कि हमेशा से होता आया है कि हिंदी के कथित मठाधीश और उनकी भजन-मंडली के लोग हिंदी के बहाने विदेश की सैर कर आए। हिंदी बेचारी अपनी बेइज्जती पर आंसू भी नहीं बहा पाई।
सवाल यह है कि न्यूयार्क में अगर हिंदी विश्व भाषा बन जाए लेकिन देश में हम इस भाषा को समूल नष्ट करने पर उतारू हैं। हमने अपने बच्चों को हिंदी स्कूलों में पढ़ाना बंद कर दिया है। भारतीय पोशाक को तिलांजलि दे दी। परम्परागत रीति-रिवाजों को दफन कर दिया। संयुक्त परिवार के सुदृढ़ ढांचे को अपने स्वार्थ के कारण तहस-नहस कर दिया। कितने अफसोस की बात है कि अपने देश में तो हम हिंदी को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रहे हैं और विदेश में बेशर्मी के साथ इस भाषा को विश्व भाषा बनाने की बात करते हैं।
यह बड़े गर्व और गौरव की बात है कि देश के सर्वोच्च पद पर पहली बार महिला को अवसर मिला है। सारे देश को उनसे काफी उम्मीदें हैं कि वह देश की समस्याओं के प्रति सकारात्मक रुख अपनाते हुए अपने को राष्ट्र के पति के रूप में नहीं अपितु राष्ट्र सेवक के रूप में निरूपित करेंगी। वैसे राष्ट्रपति पद की कुछ अपवादों को छोड़कर गौरवशाली परंपरा रही है। वह अपने नैतिक बल और प्रखर विवेक से देश को नई संजीवनी दे सकती है।
विगत वर्ष आस्ट्रेलिया में डा. हनीफ की गिरफ्तारी के बाद यह साफ हो गया है कि विदेश में आपको अच्छी निगाहों से नहीं देखा जाता। आप भले ही अपनी प्रतिभा, कौशल व कार्यकुशलता की डींग मारते रहें लेकिन उनकी निगाह में हमारी औकात दो कौड़ी की है। इस बात को राजी-गैर राजी स्वीकार करना होगा।
इस अपमान और बेइज्जती के लिए हमारी मानसिकता दोषी हैं हम दिन रात विदेश के सपने देखते हैं। हनीमून मनाने का सपना हमारे युवा विदेश का ही देखते हैं। पढ़ाई-लिखाई के साथ नौकरी भी हमारे लिए विदेश स्वर्ग की आभा बिखेरता प्रतीत होता है। अब सच्चाई सामने आ गई है कि वहां डाक्टर व इंजीनियरों को कितनी जलालत के साथ रहना पड़ रहा है। केवल दौलत की हवस के कारण लोग विदेशियों के जूते खाना मंजूर कर रहे हैं। इसके लिए दोषी कौन है ?
हमें इस विषय पर विचार करना होगा कि क्या हम पैसे के लिए ही जिंदा हैं ? हमारा सम्मान, सवाभिमान और गौरव क्या चंद टुकड़ों में नीलाम होगा ? डा- हनीफ जैसे लोग केवल धन कमाने के लिए विदेश गए हैं। इन जैसों के लिए घड़ियाली आंसू बहाने से काम चलने वाला नहीं है। अगर इतनी बेइज्जती के बाद हनीफ में थोड़ी सी गैरत होती तो वह विदेशी नौकरी को लात मारकर देश के गरीब और बेसहाराओं को चिकित्सा सेवाएं देते। क्या देश इन डाक्टर व इंजीनियरों को इतना वेतन नहीं दे जाएगा जिससे उनकी रोजी-रोटी चले। लेकिन केवल रोटी से काम चलने वाला नहीं है। उन्हें लाखों-करोड़ों का बैंक बैलेंस बनाना है। विलासिता के सभी साधनों का उपयोग करना है। देशवासियों पर अपने धन और एनआईआई का रौब झाड़ना है।
स्पष्ट है कि विदेशों में प्रतिभा पलायन नहीं हो रहा बल्कि ऐसे लोगों के जीवन का एकमात्र मकसद पैसा कमाना ही रह गया है। जब आपका मकसद पैसा कमाना ही है तो इसके लिए आपको मान7अपमान की चिंता नहीं करनी होगी। माल आप कमा रहे हो और गरीब देशवासी तुम्हारे लिए बवाल करें ? यह स्थिति अधिक दिन चलने वाली नहीं है।
इस समय प्रदेश् में शिक्षा माफिया की नींद हराम है। मामूली स्तर के लोग स्कूल के नाम पर छात्रवृत्तियां पचाते रहे और सांसद और विधायक निधि से संपन्न लोगों की श्रेणी में आ गए हैं। कभी शिक्षा के क्षेत्र में दानवीर और समाजसेवी आते थे। उनका उद्देश्य लोगों में ज्ञान के प्रकाश को फैलाना था। लेकिन अब इस क्षेत्र में धूर्त, लम्पट और भ्रष्ट लोगों की भरमार है।
यह लोग इतने ताकतवर हो गए हैं कि किसी भी ईमानदार अधिकारी के खिलाफ फर्जी शिकायतें करवा कर उसका स्थानांतरण करवा देते हैं। अफसोस! अपने को जनसेवक कहने वाले सांसद-विधायक ही इन लोगों की पैरवी में सबसे आगे खड़ा होते हैं। मुख्यमंत्री को शिक्षा क्षेत्र से भ्रष्टाचार मिटाने के साथ विधायक निधि पर भी ध्यान देना होगा। निजी शिक्षण संस्थाओं को दी गई विधायक निधि की सीबीआई से जांच कराकर शिक्षा के द्वारा करोड़पति बने लोगों को जेल का रास्ता दिखाने का अदम्य साहस दिखाना चाहिए।


2 टिप्‍पणियां:

  1. सवाल यह है कि न्यूयार्क में अगर हिंदी विश्व भाषा बन जाए लेकिन देश में हम इस भाषा को समूल नष्ट करने पर उतारू हैं। हमने अपने बच्चों को हिंदी स्कूलों में पढ़ाना बंद कर दिया है। भारतीय पोशाक को तिलांजलि दे दी। परम्परागत रीति-रिवाजों को दफन कर दिया। संयुक्त परिवार के सुदृढ़ ढांचे को अपने स्वार्थ के कारण तहस-नहस कर दिया। कितने अफसोस की बात है कि अपने देश में तो हम हिंदी को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रहे हैं और विदेश में बेशर्मी के साथ इस भाषा को विश्व भाषा बनाने की बात करते हैं।
    बिलकुल सही कहा। आपकी हर बात से सहमत हूँ। मगर किसी के पास इन सवालों का जवाब नही है। जीभ बोले क्या उसे तो हमेशा पेत की बात सुनाई पडती है। सरकार लोगों के पेट भरे तो वो बोलने भी लगेंगे तभी तो सरकार लोगों के और देश के बारे मे कुछ सोचती नही। बहुत सार्थक आलेख है धन्यवाद्

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  2. आपकी कुछ बातें सही हैं जैसे कि हिंदी के लिये और ज्यादा काम करने की जरूरत है । पर सभी लोग सिर्फ पैसे के लिये विदेश नही जाते । अपने देश में नोकरियां कम और लेने वाले ज्यादा । उस पर भी सिफारिश की जरूरत फिर पिछडों को मिलने वाले आरक्षण, भ्रष्टाचार, इन सब समस्याओ से थक कर भी आदमी जिसको मौका मिले और काबिलीयत हो विदेश जाता है ।

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