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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध

आज की राजनीति पतन के दौर से गुजर रही है। राष्ट्रवाद, गांधीवाद, समाजवाद अथवा अम्बेडकरवाद ट्रेड मार्क बनकर रह गये हैं। न तो गांधीवादियों में गांधी की नैतिकता है और न ही समाजवादियों में परिवार के अतिरिक्त समाज के प्रति संवेदना है। अम्बेडकरवाद भी सत्ता पाने का अचूक हथियार बनकर रह गया है। वहीं राष्ट्रवाद भी सत्ता के गलियारों में जाकर दम तोड़ रहा है। इसका जीता जागता उदाहरण है कि यूपीए सरकार के खिलाफ हथियार भांजने वाली सपा, राजद और बसपा अपने सिद्धांतों को ताक में रखकर सरकार को बचाते हैं और बेशर्मी से अपनी सफाई भी देते हैं। इस राजनीति के गिरगिटी रंग से जनता आहत हो चुकी है लेकिन उसके पास विकल्पहीनता है। आखिर वह करे तो क्या करे। उसने लगभग सभी को आजमा लिया है।

जैसे पेशेवर वैश्या होती है। पेशेवर गवैये और शिल्पकार होते हैं। वैसे ही कभी समाजसेवा का पर्याय राजनीति विशुद्ध पेशा बन गया है। इस पेशेवर राजनीति में कई राजनेताओं के पूरे परिवार उतर आये हैं। आखिर यह धंधा चोखा है सम्मान के साथ माल भी। इस पेशेवर राजनीति से देश के लोकतंत्र का बहुत बड़ा नुक्सान हुआ है। इस बारे में जनांदोलन होना चाहिए और पेशेवर राजनेताओं को धता बताकर विशुद्ध समाज और देश के हित में काम करने वालों को ही चुनाव में जिताना चाहिए। मंहगे चुनाव के कारण राजनीति में अधिक गंदगी आई है। अब सांसद का चुनाव दसियों करोड़ और विधायक का करोड़ का हो गया है। ग्राम प्रधान और सभासद के चुनाव में भी लाखों रुपये खर्च हो जाते हैं। जब इतना मंहगा चुनाव होगा तो कौन ईमानदार आदमी चुनावी राजनीति में उतरेगा। मंहगे चुनाव से सही आदमी राजनीति में आने से घबराता है। इसलिए राजनीति में धनकुबेरों और माफियाओं का कब्जा हो गया है। यही कारण है कि राजनीति में सिद्धांत नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। चुनाव जीतना ही सिद्धांत और सत्ता पाना ही आज की राजनीति का ध्येय हो गया है।

वर्तमान राजनीति कारपोरेट सेक्टर में बदल गई है। इसमें पूंजीपति, गुंडो और राजनेताओं की जुगलबंदी काम करती है। चुनाव में पैसा पूंजीपति खर्च करते हैं। गुंडों वोटरों को डराते धमकाते हैं और नेताओं सत्ता में बैठकर इनका ख्याल रखते हैं। सिद्धांत अच्छे ध्येय और मंजिल के लिए होते हैं परंतु येन-केन-प्रकारेन सत्ता पाने के लिए नीति और सिद्धांतों की बलि देना आम बात हो गई है।

हमारे देश में राजनीति को कभी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, डा. अम्बेडकर, डा. लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव जैसे त्यागी लोग राजनीति करते थे तो लोगों का सिर श्रद्धा से उनके त्याग और बलिदान को नमन करता था। लेकिन अब तो माने हुए गुंडे, व्यभिचारी और भ्रष्ट संसद और विधानमंडलों में बैठकर इसकी गरिमा को ध्वस्त कर रहे हैं। अगर लोकतंत्र को बचाना है तो अच्छे लोगों को राजनीति में आना होगा बरना यह लोग देश को गर्त में धकेल देंगे।

गंदी राजनीति के लिए केवल नेताओं को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए जनता भी बराबर की दोषी है। गलत लोगों को जनता ही तो चुनकर भेजती है। वह कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर वोट देती है। उसे ईमानदार और सादगीपूर्ण प्रतिनिधि पसंद ही नहीं है। उसे धनवान और vilaasi जीवन शैली का प्रतिनिधि चाहिए। यही कारण है कि देश की संसद में आधे से अधिक अरबपति और करोड़पति सांसद हैं।

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