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मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

राजाओं का ही इतिहास लिखा गया - डा. परिहार







भदोही में मेधावी छात्र सम्मान समारोह
हमारे देश का इतिहास वस्तुतः राजाओं का इतिहास है। यही कारण है कि जंगे आजादी के अप्रतिम योद्धा और भदोही (संत रविदास नगर) की पावन माटी में जन्मे शीतल पाल का इसमें प्रमुखता से उल्लेख नहीं है। अगर राम, कृष्ण, युधिष्ठर, बहादुरशाह जफर, रानी झांसी आदि राजा अथवा रानी न हुए होते तो इतिहास में इनका नामोनिशान नहीं होता। यह उद्गार नया इन्द्रधनुष के प्रधान संपादक व विचार बिगुल के चर्चित ब्लॉगर डाक्टर महाराज सिंह परिहार ने पाल विकास समिति के तत्वावधान में विगत दिनों भदोही के ज्ञानपुर नगर में मुखर्जी उद्यान में संपन्न मेधावी छात्र सम्मान समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में व्यक्त किये। कार्यक्रम की अध्यक्षता आर० एन ० पाल ने की। विशिष्ट अतिथि थे प्रख्यात समाजसेवी सेवालाल पाल तथा दिवंगत आईएएस दशरथ प्रसाद पाल की धर्मपत्नी नीलम प्रसाद थीं.
इस मौके पर जिला पंचायत सदस्य श्रीमती सावित्री देवी सहित कई क्षेत्र पंचायत सदस्य, ग्राम प्रधानों का मुख्य अतिथि ने शॉल ओढ़ाकर और माल्यार्पण करके अभिनंदन किया। प्रतिभाशाली हाईस्कूल, इंटरमीडिएट, स्नातक व स्नातकोत्तर छात्रों सहित विभिन्न सरकारी नौकरी में प्रतियोगिता द्वारा चयनित हुए युवाओं का मुख्य अतिथि डा। महाराज सिंह परिहार, विशिष्ट अतिथिद्वय सेवालाल पाल व श्रीमती नीलम प्रसाद ने शील्ड, मेडल प्रदान कर एवं मार्ल्यापण करके स्वागत किया। समारोह में श्रीमती नीलम प्रसाद, सेवालाल पाल, रमाशंकर पाल, डा. कमल, जयशंकर प्रसाद पाल, मुन्नालाल पाल, श्रीनाथ पाल आदि अनेक वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किये। संचालन संस्था के संरक्षक बी.एल. पाल ने किया। इस अवसर पर अनुभाग अधिकारी लक्ष्मण पाल, कर अधीक्षक आर.बी.पाल, बीनापाल, अनुपमा आदि उपस्थित थे। समारोह से पूर्व मुख्य अतिथि तथा विशिष्ट अतिथियों ने १८५७ के शहीद शीतल पाल की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया.

सांसद निधि पर ज्वलंत सवाल

बिहार में नीतीश कुमार ने विधायक निधि समाप्त कर यह मांग पुरजोर तरीके से उठाई है कि सांसद निधि भी समाप्त की जाये। इस तरह की मांगे विगत कई वर्षो से उठाई जा रही हैं कि इस निधि का दुरुपयोग हो रहा है और सांसद अपनी मनमानी करके इसका उपयोग कर रहे हैं। वैसे जब 1993 में अल्पमत में आई पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने इसे संभवतः इस उद्देश्य से आरंभ किया था कि इससे सांसदों को विकास के लिए प्रोत्साहन राशि मिल जाये। योजना के आरंभ में सांसद निधि की धनराशि पहले पचास लाख और फिर एक करोड़ रुपये थी जिसे राजग सरकार ने बढ़ाकर दो करोड़ रुपये कर दिया था। इस मन्तव्य भले ही विकास का रहा हो लेकिन इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि अपनी अल्पमत सरकार को बचाने का शायद यह लॉलीपॉप भी था। इस निधि में प्रतिवर्ष 1600 करोड़ सांसदों को आवंटित की जाती है। अब तक इस मद में 17000 करोड़ रुपये आवंटित हो चुके हैं। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस जनहित का मामला बताकर इस योजना को हरी झंडी दिखा दी। जबकि द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग तथा नेशनल कमीशन फॉर रिव्यू ऑफ द वर्किंग ऑफ कांस्टीट्यूशन अर्थात् एनसीआरडब्ल्यूसी और 2005 में सोनिया गांधी की अध्यक्षता में गठित नेशनल एडवायजरी कमेटी भी सांसद निधि खत्म करने की सिफारिश कर चुकी है। सांसदों की मांग थी कि सांसद निधि बढ़ाकर पांच करोड़ रुपये सालाना की जाये। इस पर केन्द्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के इस प्रस्ताव को योजना आयोग के उपाध्यक्ष डा. मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने ठुकरा दिया है। इस निधि के दुरुपयोग की शिकायतें आम हैं। यह वास्तविकता भी है कि सांसद-नौकरशाही और ठेकेदारों का गठजोड़ इस निधि का बंदरबांट करने से पीछे नहीं है। अधिकांश सांसदों ने इस राशि का उपयोग अपने निजी स्कूल व कॉलेज आदि में अधिक किया है। दुरुपयोग के संबंध में केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जायसवाल ने कहा कि हाल ही में उनके मंत्रालय ने एक रपट जारी करते हुए उन कार्यों का खुलासा किया था जो सांसद निधि के तहत चिन्हित नहीं हैं। ऐसे सांसदों से उनके द्वारा कराये गए गैर चिन्हित कामों की रकम वसूली के लिए सम्बंधित जिले के डीएम को कार्रवाई शुरू करने का कहा गया है।

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

राज्यसभा की प्रासंगिकता

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राज्यसभा को समाप्त करने की मांग करके एक नई बहस छेड़ दी है। इससे पहले भी इस सदन की प्रासंगिकता पर अक्सर सवाल उठाये जाते रहे हैं। इस मांग से हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के औचित्य और उपादेयता पर प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। हमारी संसदीय प्रणाली दो सदनीय है। ब्रिटेन में भी हाउस ऑफ कॉमंस तथा हाउस ऑफ लार्डस तथा अमेरिका में भी कांग्रेस तथा सीनेट आदि दो सदनीय व्यवस्था है। राज्यसभा अर्थात् उच्च सदन का सभापतित्व उपराष्ट्रपति करते हैं। इस सदन का बनाने का उद्देश्य हमारे संविधान निर्माताओं के अनुसार संसद की बहस की तार्किकता और सूक्ष्म विश्लेषण के लिए था जिससे विधेयकों पर सारगर्भित बहस हो। लेकिन अमेरिकी सीनेट की ताकत राज्यसभा से अधिक है। उसके सदस्यों का चुनाव सीधे जनता द्वारा किया जाता है जबकि राज्यसभा में 238 सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। 12 उन सदस्यों को राष्ट्रपति मनोनीत करता है जो विज्ञान, साहित्य, कला और सामाजिक क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभाते हैं। यह स्थायी सदन है जो कभी विघटित नहीं होता और इसके एक तिहाई सदस्य हर दो वर्ष बाद पद से निवृत होते हैं। ब्रिटेन के हाउस ऑफ लार्डस की सदस्यता जीवनपर्यन्त होती है जबकि राज्यसभा में सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है। और वह देश का सर्वोच्च न्यायालय भी होता है। वस्तुतः राज्यसभा को कोई विशेषाधिकार नहीं होते। इस सदन में अगर सरकार अल्पमत में आ जाये तो भी उसकी सेहत पर फर्क नहीं पड़ता। वित्त विधेयक के बारे में इसकी स्थिति अत्यंत कमजोर है। इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह राजनीति के पिटे हुए मोहरों का केन्द्र बन गया है। लगभग हर दल लोकसभा चुनाव में हारे हुए अपने बड़े नेताओं को राज्यसभा में एडजस्ट करता है। वर्तमान राज्यसभा में ऐसे अधिकांश सदस्य हैं जिन्हें लोकसभा के चुनाव में मुुंह की खानी पड़ी थी। इसके अतिरिक्त बहुंत से राजनेता ऐसे भी हैं जो अपनी जुगाड़ और जोड़तोड़ करके इस सदन में प्रवेश कर जाते हैं। कला, समाजसेवा, साहित्य और विज्ञान के नाम पर सरकार राष्ट्रपति से उन्हीं को मनोनीत कराती है जो उसकी विचारधारा के हों। अब समय आ गया है कि इस मुद्दे पर गहन मंथन हो तथा वर्तमान परिवेश में इसकी आवश्यकता क्यों हैं, पर सार्थक देशव्यापी बहस छेड़ी जानी चाहिए।

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

सरकारी और निजी सम्पत्ति की तोड़फोड पर अंकुश

हमारी राजनीति इतने छिछले स्तर पर उतर आई कि अपनी मांगों के समर्थन में धरना, प्रदर्शन के दौरान सरकारी और निजी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने में अपने को गौरवान्वित महसूस करती है। वास्तविकता यह है कि जबसे हमारे हमारे राजनैतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का खात्मा हुआ है। राजनैतिक दर्शन और विचारधारा को तिलांजलि दे दी गई है। यही कारण है कि उनके विरोध का तरीका भी बदल गया है। सरकारी वाहनों को जलाना आम बात हो गई है। अपने धरने या प्रदर्शन के दौरान राजनैतिक दलों के कार्यकर्ता उद्दंड हमलावरों में बदल जाते हैं और वहशियों की भांति अपनी हरकतों पर उतर आते हैं। वह उसी धरने और प्रदर्शन को सफल मानते हैं जिसमें निजी और सरकारी सम्पत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया हो। अब इलाहाबाद हाईकोर्ट उत्तर प्रदेश के गृह सचिव को दिये अपने निर्देश में स्पष्ट कर दिया है कि तोड़फोड़ करने वालों को चिन्हित कर उनसे प्रदर्शन और धरने के दौरान हुए नुकसान की भरपाई की जायेगी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल ने अपने निर्देश में प्रदेश सरकार को कहा है कि वह राजनैतिक दलों के धरने व प्रदर्शन के दौरान हुए नुकसान की भरपाई नेताओं और उनके समर्थकों से करे। इस ऐतिहासिक निर्देश से प्रदेश की जनता ने राहत की सांस ली है जो आये दिन राजनैतिक दलों के प्रदर्शनों से नुकसान का शिकार होती है। इस निर्देश से राजनैतिक नेता और कार्यकर्ता लक्ष्मण रेखा का उल्लघंन करने से कतरायेंगे क्योंकि उन्हें पता है कि हर नुकसान की भरपाई उनसे की जायेगी। न्यायमूर्ति का यह निर्देश तो सही है लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि हमारा पुलिस प्रशासन ईमानदारी से अपने कार्य को अंजाम देगा। आम नागरिक इस सच्चाई से वाफिक है कि हमारी पुलिस और प्रशासन आये दिन न्यायपालिका के निर्देशों की अनदेखी करता है। कोर्ट के इस निर्देश की आड़ में निरपराध लोगों का सताना शुरू हो जायेगा। वस्तुतः इस निर्देश से पुलिस प्रशासन निरंकुश हो जायेगा। तोड़फोड़ के आरोप में वह ऐसे लोगों को भी चिन्हित कर सकता है जिनका इन घटनाओं से दूर-दूर का वास्ता नहीं होगा।
उच्च न्यायालय के इस निर्देश से निश्चित रूप से उन राजनेताओं के तेवर ढीले होंगे जो अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के लिए तोड़फोड़ का सहारा लेते हैं। अब राजनेताओं को कोई भी धरना अथवा प्रदर्शन करने से पहले सोचना होगा कि उनके समर्थकों में कोई अराजक तत्व तो नहीं है। इससे राजनीतिक दलों में शांति और सद्भाव में आस्था रखने वाले कार्यकर्ताओं की पूछ बढ़ेगी। हो सकता है कि हाईकोर्ट के इस निर्देश से हमारी दिशाविहीन राजनीति पर लगाम लगेगी।
इस निर्देश के आलोक में सवाल यह उठता है कि आखिर धरने और प्रदर्शन के दौरान तोड़फोड़ की प्रेरणा आखिर राजनैतिक कार्यकर्ताओं को किससे मिलती है ? उत्तर साफ है कि यह प्रेरणा उन्हें सांसदों और विधायकों से मिलती है जो सदन में माइक आदि तोड़ते हैं। सरकारी कागजातों की चिंदी-चिंदी करके उन्हें पतंग की तरह सदन में उड़ाते हैं। हमारी माननीय सांसदों और विधायकों को अपने आचरण में परिवर्तन करना होगा। बड़े नेताओं से ही कार्यकर्ता सीखते हैं। अतः उन्हें सयंम का परिचय देना चाहिए।
न्यायालय के इस निर्देश के परिप्रेक्ष्य में मीडिया की जिम्मेदारी निश्चित रूप से बढ़ेंगी। प्रदर्शन और धरना के दौरान सरकारी और निजी सम्पत्तियों को जो तत्व नुकसान पहुुचाते हैं। उन्हें चिन्हित करने में प्रशासनिक अधिकारी बिना मीडिया के सहयोग के अंजाम तक नहीं पहुुंच सकते। अतः मीडिया विशेषकर इलैक्टॉनिक मीडिया की जिम्मेदारी अधिक बढ़ेगी। इस जिम्मेदारी को मीडिया को बखूबी निभाना चाहिए। लोकतंत्र की मजबूती में उसकी सक्रिय सहभागिता से इंकार नहीं किया जा सकता।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

वाराणसी विस्फोटःआस्था पर हमला

विगत दिनों वाराणसी में गंगा आरती के समय हुए आतंकी हमले ने समूचे देशवासियों को झकझोर कर रख दिया है। जिस समय लोग आस्था और श्रद्धा के साथ सायंकाल गंगा की आरती उतार रहे थे। उन्हें सपने में भी ख्याल नहीं था। आखिर यह ख्याल उन्हें आता क्यों ? आखि रवह इस आरती को सदियों से परम्परागत रूप से करते आ रहे हैं। वाराणसी में सभी धर्मों के लोग आपसी सद्भाव और भाईचारे से रहते हैं। फिर इस तरह की कुत्सित और अमानवीय विस्फोट का क्या मतलब है। समझ में नहीं आता कि आखिर आतंकवादी चाहते क्या हैं ? क्या वह देश की साझी संस्कृति को ध्वस्त करना चाहते हैं अथवा यहां के आपसी सद्भाव को चोट पहुंचाकर अपने मंसूबे पूरा करना चाहते हैं। इस हमले से इतना तो स्पष्ट है कि देश में आतंकवादियों ने जबर्दस्त घुसपैंठ बना ली है। यह हमले भले ही विदेशी शत्रुओं द्वारा प्रायोजित हों लेकिन इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि उन्हें इसी देश के लोगों से संरक्षण और मदद मिलती है। जब तक हम अपने बीच के विभीषणों और जयचंदों को नेस्तनाबूद नहीं करेंगे। उनके मुख से नकाब नहीं उठायेंगे। तब तक आतंकी अपने काले कारनामों को अंजाम देते रहेंगे। इस विस्फोट के संदर्भ में हमें आतंकी मानसिकता और विचारधारा पर भी मंथन और चिंतन करना होगा कि आतंकी हमारी गंगा-जमुनी विरासत के अलमस्त शहर वाराणसी को क्यों बार-बार अपना निशाना बना रहे हैं। यह मामला हमारी आस्था और श्रद्धा से जुड़ा हुआ है। इस घटना ने हमारे अंतर्मन को घायल ही नहीं किया बल्कि हमारी आस्था और विश्वास को ललकारा भी है। इस घटना के तार प्रतिबंधित सिमी से जोड़ा जा रहा है जिसने प्रतिबंध के बाद अपना नाम बदल लिया है। आतंकी सोचते थे कि इस हमले से हिंदू भड़क उठेंगे और अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए अनहोनी करेंगे। परंतु आतंकियों के इस मंसूबे को धराशायी किया है वाराणसी के निवासियों ने। उन्होंने इस घटना के बाद भी भय और आतंक से अपने को परे रखकर आतंकी संगठनों को करारा जवाब दिया है। सिमी और संघ को एक जैसा संगठन बताने वालों की आंख खुल जानी चाहिए कि किस प्रकार कट्टरवादी इस्लामी ताकतें देश की एकता और अखंडता को विखंडित करने में जुटी हुई हैं। अब किंतु-परंतु से काम नहीं चलेगा अपितु अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति से आतंकियों को समूल नष्ट करना होगा। आखिर कब तक आतंकी देश की आस्था और श्रद्धा को लहूलुहान करते रहेंगे।

रविवार, 5 दिसंबर 2010

भारतीय अमीरों में सेवा भावना का अभाव

बहुचर्चित उपन्यास ‘सिटी ऑफ जॉय‘ के फ्रांसीसी लेखक डोमिनिक लेपियर ने भारतीय अमीरों को सही आइना दिखाया है कि उनमें गरीबों के प्रति मानवीय संवेदना का अभाव है। वह उनके मददगार नहीं होते। उनके इस कथन को एकदम खारिज नहीं किया जा सकता। देश में अरब और खरबपतियों की संख्या बढ़ रही है लेकिन उनका सामाजिक सरोकारों से कोई रिश्ता नहीं है। वह गरीब और मरीजों के प्रति सहिष्णु नहीं है। यह भारतीय परम्परा और संस्कृति के विरुद्ध है। देश में हजारों धर्मशालाएं, बावड़ी, कुंए, स्कूल और कालेज हमारे देश के अमीरों ने ही बनाये हैं। देश का शायद ही कोई ऐसा शहर होगा। जहां उन्होंने अपने समाजोपयोगी कार्यों को अंजाम नहीं दिया हो। पहले बड़ा आदमी बड़े काम करने वाले को ही माना जाता था। लेकिन आज सब कुछ बदल गया है। यही कारण है कि अधिकांश धनकुबेर अपनी पत्नी को उसके जन्मदिवस पर जेट विमान भेंट करते है तो कोई बहुमंजिला आलीशान इमारत। वस्तुतः भौतिक जीवन में आकंठ डूबे अमीरों का नजरिया ही बदल गया है। उनका धन उनके ऐशो-आराम में या अपने ओद्यौगिक साम्राज्य को विस्तार करने में अधिक खर्च होता है। देश में टाटा और इन्फोसिस के नारायणमूर्ति जैसे कुछ ही धनकुबेर हैं जो अपने सामाजिक दायित्वों को अपने अस्पतालों व अन्य प्रतिष्ठानों के माध्यम से पूरा कर रहे हैं।

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

चिकित्सक क्यों नहीं जाते गांव

जाने क्यों सरकारी अधिकारी और कर्मचारी गांव जाने से घबराते हैं। नौकरी पाने के बाद वे येन-केन-प्रकारेन शहर में ही अक्सर पदस्थ रहते हैं। हांलांकि उनको गांव में भी स्थानांतरित या नियुक्ति दी जाती है लेकिन भ्रष्टाचार के कारण उपस्थिति पंजिका में उनकी फर्जी उपस्थिति दर्ज होती है। वह इसकी बाजिव कीमत भी चुकाते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में उत्तर प्रदेश सरकार ने ग्रामीणों के हित में साहसिक कदम उठाते हुए 1 दिसम्बर 2010 से नियुक्त चिकित्साधिकारियों की सेवा शर्तों में संशोधन करके उन्हें परामर्शदाता बनने के लिए चार साल गांवों में अनिवार्य रूप से अपनी सेवाएं देनी होंगी। पहले वरिष्ठ चिकित्साधिकारी वरीयताक्रम से परामर्शदाता यानी कंसल्टेंट बन जाते थे। अब उन्हें अपनी प्रोन्नति के लिए ग्रामीणों के बीच चार साल का समय गुजारना होगा। डाक्टरों को सरकार के इस आदेश से निराशा होगी क्योंकि वह शहरी जीवन-शैली के गुलाम हो गये हैं। वह अपना पवित्र दायित्व चिकित्सा सेवा को विस्मृत कर चुके हैं और शहर में धड़ल्ले से प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं। अब सवाल यह पैदा होता है कि कहीं सरकार का यह कदम कागजों में दब कर न रह जाये अथवा डाक्टर फर्जी तरीके से गांव में डयूटी करते रहें। सरकार सहित जनप्रतिनिधियों को भी इस ओर जागरूक रहना होगा कि कहीं इस आदेश का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है।

सांस्कृतिक क्षरण करते टीवी सीरियल्स

राखी का इंसाफ तथा बिग बॉस अपने शो के माध्यम से अश्लीलता के साथ अनैतिक मूल्यों को प्रतिस्थापित करने में लगे हैं। इनके संवाद, अभिनय तथा हाव-भाव दिशाहीनता से ओत-प्रोत हैं। सभी चैनल्स में इस बात ही होड़ लगी है कि कौन अत्यधिक अश्लीलता, नग्नता और भोंड़ापन दिखा सकता है। इन्होंने यह मान लिया है कि दर्शकों को घटिया स्तर के सीरियल्स और रीयल्टी शो ही पसंद हैं। इस समय देश में असंख्य टीवी चैनल्स हो गये हैं। हर भाषा में इनकी बाढ़ आई हुई है। लगातार चौबीस घंटे चलने वाले इन चैनल्स में मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता और देश के परम्परागत सांस्कृतिक मूल्यों का क्षरण जारी है। पाश्चात्य जगत की देखा-देखी रीयल्टी शो दिखाये जाने लगे हैं। हास्य के नाम पर भोंड़ा हास्य सेक्स के साथ परोसा जा रहा है। सीरियल्स में नैतिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। समाचारों के बारे में तो कहना ही क्या ? एक्सक्लूसिव के नाम पर एक ही समाचार सभी चैनल्स बेशर्मी दिखा रहे हैं। मालूम ही नहीं पड़ता कि यह समाचार कैसे एक्सक्लूसिव हो गया। भूत-प्रेतों के अजीब हंगामों से हमारे चैनल्स भरे पड़े हैं। मालूम ही नहीं पड़ता कि वे दर्शकों को कैसा मनोरंजन और जानकारी देना चाहते हैं। इन चैनल्स में भी भीषण प्रतिस्पर्धा है जिसके कारण एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का षड़यंत्र जारी रहता है। जब दूरदर्शन आरंभ हुआ तो उसने लोगों के स्वस्थ मनोरंजन के लिए बुनियाद, हमलोग, नुक्कड़, उड़ान, चन्द्रकांता, नीम का पेड़ आदि समाजोपयोगी तथा सकारात्मक धारावाहिक प्रसारित किये। रामायण और महाभारत ने अपार लोकप्रियता हासिल की। लेकिन जैसे ही चैनल्स की बाढ़ आई। उसमें धारावाहिकों के कथानक ही बदल दिये। सास भी कभी बहू थी तथा घर घर की कहानी में जिस प्रकार नैतिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाई गई। उससे हमारे सांस्कृतिक मूल्य क्षरित हुए। अफसोस इस बात का है कि चैनल्स की मनमानी तथा उच्छंखलता के खिलाफ न तो सरकार ने नकेल कसी और न ही जनता ने इसका प्रतिरोध किया। यह दौर जारी रहा तो निश्चित रूप से हमारे नैतिक मूल्य और सांस्कृतिक विरासत को कोई विलुप्त होने से नहीं बचा पायेगा।