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शुक्रवार, 18 जून 2010

क्या बिहार में चलेगा माया का जादू

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने के बाद भी माया की राजनैतिक महत्वाकांक्षा सिमटने का नाम नहीं ले रही है। वह पूरे देश में अपने दल बहुजन समाज पार्टी का परचम लहराना चाहती हैं। यह दूसरील बात है कि अब तक उन्हें प्रदेश के बाहर उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली है। राजस्थान, हरियाणा आदि के चुनावों के परिणामों के बाद भी वह हताश नहीं हैं अपितु पूरे जोर-शोर से बिहार विधानसभा के आगामी वर्ष होने वाले चुनावों के लिए मैदान में कूद पड़ी हैं। उनके इस निर्णय से इतना तो अवश्य लगता है कि वह केवल प्रदेश की राजनीति से संतुष्ट नहीं हैं अपितु अपने दल को राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करने का प्रतिबद्ध हैं। पटना के गांधी मैदान में अपनी पार्टी की रैली करके उन्होंने चुनावी बिगुल फूंक दिया है। वह इस चुनाव में अपने बूते पर ही चुनाव लड़ेंगी। उनके मैदान में कूदने से सत्तारूढ़ दल के माथे पर सिलवटें आ गईं हैं। वह जिस ब्राह्मण दलित गठजोड़ की राजनीति से उत्तर प्रदेश में शासन कर रहीं हैं। उसे वह बिहार की जमीन पर अमलीजामा पहनाना चाहतीं हैं। बिहार का सवर्ण विशेष रूप से ब्राह्मण मतदाता जदयू-भाजपा के साथ है। जदयू ने दलित और महादलित के अपने कार्ड से महादलितों को अपने पाले में खींचने की रणनीति तैयार कर ली है। लालू-पासवान का गठजोड़ भी कमजोर नहीं है। विगत वर्ष हुए उपचुनावों में लालू को जिस प्रकार सफलता प्राप्त हुई। उससे यह साफ संदेश जाता है कि बिहार की राजनीति से लालू को सहज ही खारिज नहीं किया जा सकता। कांग्रेस भी अपने अस्तित्व के लिए सवर्ण और मुस्लिम वोटों पर डोरे डाल रही है। ऐसे में मायावती को किन जातीय समीकरणों से सफलता मिलेगी। भविष्य के गर्भ में है। निश्चित रूप से वह अपने उत्तर प्रदेश के शासन की उपलब्धियों के आधार पर चुनाव में उतर रहीं हैं। लेकिन सवाल यह है कि उनकी उपलब्धियां क्या हैं। अब न वह पहले जैसी कठोर प्रशासक है और न ही उन्होंने ऐसा कोई कार्य किया है जिसे बिहार की जनता स्वीकार कर ले। हां यह हो सकता है कि वह प्रमुख दलों के विद्रोही नेताओं को अपनी पार्टी का प्रत्याशी बनाकर उनके और अपने दलित विशेष रूप से जाटव वोटों के सहारे कुछ सीटें प्राप्त कर लें। उनका यूपी का जातीय फार्मूला फिलहाल परवान चढ़ने की स्थिति में नहीं है। वहां का चुनाव मुख्यरूप से सत्तारूढ़ गठबंधन और लालू-पासवान के मध्य होगा। कांग्रेस भी अपनी खोयी हुई जमीन पाने की कोशिश करेगी। ऐसे में मायावती बिहार में किस प्रकार अपने दल को जितातीं है। उन्होंने अपने दल के सभी सिपहसालारों को बिहार के चुनाव में परोक्ष रूप से लगा दिया है। यह तो विधानसभा का चुनाव परिणाम ही बतायेगा कि वह कितना सफल हो पातीं हैं। अगर वह कुछ सीटें प्राप्त कर लें और विधासभा त्रिशंकु हो तो उनका रास्ता आसान हो सकता है। उनकी निगाह कुछ राजनैतिक समीक्षकों के इस आकलन पर टिकी हैं कि बिहार विधानसभा त्रिशंकु होगी। अगर उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति बिहार में रही और किसी गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिल गया तो फिर माया को अपने गिनती के विधायकों को बचाना मुश्किल होगा। वैसे भी बसपा के विधायक सत्ताधारी दलों में शामिल हो जाते हैं। अभी हुए राज्यसभा के चुनाव में बसपा के पांचों विधायकों ने क्रास वोटिंग की हैं।

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