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शुक्रवार, 25 जून 2010

धनकुबेरों का अघोषित आरक्षण

आरक्षण वास्तव में बुरा प्रावधान है। जिससे प्रतिभाएं आहत होती हैं और अयोग्य लोगों को अवसर मिल जाता है। जिसके कारण मेधावी छात्रों में हताशा और निराशा की भावना प्रवेश कर जाती है। संभवतः यही कारण था कि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की तो पूरे देश में भूचाल आ गया था। इसके काउंटर एक्शन के लिए यथास्थितिवादियों को कमंडल का सहारा लेना पड़ा था। कहा गया था कि इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा। मीडिया की जोरदार मुहिम के कारण यह मुद्दा जन-जन तक पहुंच गया और इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई।
अब सवाल यह पैदा होता है कि योग्यता की परिभाषा क्या है ? योग्यता का पैमाना केवल सरकारी नौकरियों में होना चाहिए अथवा जीवन के अन्य क्षेत्रों में। अब आप बताइए कि योग्यता और ईमानदारी कहां है ? क्या सामान्य कोटे के अधिकारी व कर्मचारी ईमानदार हैं ? क्या इस वर्ग के चिकित्सक अपने दायित्व को पूरा कर रहे हैं ? क्या शिक्षा मंदिरों में केवल योग्यता का ही बोलवाला है। ?
यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं। जिनका हल हमें खोजना होगा। आज देश की दुर्दशा हुई है उसमें अगर दलितों के अठारह फीसदी आरक्षण को छोड़ दिया जाए तो क्या बयासी फीसदी कथित मेरिटधारी लोग ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं अथवा इस वर्ग के अधिकारी, इंजीनियर व डाक्टर ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ हैं ? अगर ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ होते तो देश में बेतहाशा भ्रष्टाचार क्यों है ? हमारे पुल, भवन व अन्य निर्माण गुणवत्ता के अभाव में क्यों बनते ही धराशायी हो जाते हैं ?
वास्तविकता यह है कि इस देश में ओबीसी व दलित आरक्षण के समानांतर एक और आरक्षण चल रहा है। जिसकी सभी को पता हैं मीडिया भी इससे अनजान नहीं है लेकिन फिर क्यों इस आरक्षण की चर्चा नहीं होती ? क्या यह सच नहीं है कि दशकों से डाक्टर व इंजीनियर केवल पैसे के जोर पर बने हैं निजी संस्थानों में लम्बा-चौड़ा डोनेेशन देकर ? सच्चाई है कि आगरा के ही नहीं वरन देश के कई कथित योग्य चिकित्सकों के लड़के-लड़कियां निजी संस्थानों में मनमानी धनराशि चुका कर डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे हैं।
यही स्थिति देश की उच्च शिक्षा की है। महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में क्या अघोषित आरक्षण नहीं हैं ? सच्चाई तो यह है कि लोगों का पूरा परिवार इन संस्थानों में योग्यता के कारण नहीं अपितु परिवारवाद अथवा ‘गिव एंड टेक’ के कारण काबिज हैं। इस कॉकस केे कारण सवर्ण वर्ग के योग्य लोग भी शिक्षा के उच्च संस्थानों में प्रवक्ता नहीं बन सकते। ऐसे उदाहरण विश्वविद्यालय में स्पष्ट दिखाई देते हैं। परी्रक्षाओं में सर्वाधिक अंक कैसे आते हैं। यह जानकारी सभी को है लेकिन जानकर भी अंजान बने हुए हैं।
क्या कभी इस प्रवृत्ति के खिलाफ किसी राजनेता अथवा मीडिया ने आवाज उठाई। क्या किसी ने सोचा कि अत्यंत निर्धनता में जीवन-यापन करने वाले कमजोर वर्ग क्या बिना आरक्षण के इन पूंजीपतियों की दौड़ में बराबरी कर सकता है ? इस स्थिति की अनदेखी नहीं की जा सकती।
कौन कहता है कि आरक्षण होना चाहिए ? लेकिन धन के बूते उच्च शिक्षा में प्रवेश का आरक्षण कब समाप्त होगा ? संभवतः मंहगी शिक्षा का मुख्य कारण यह भी है कि देश का योग्य व मेधावी वर्ग उच्च शिक्षा से वंचित रहे और थैलीशाहों व भ्रष्ट अधिकारियों के बच्चे ही उच्च शिक्षा में प्रवेश कर सकें। आइए इस अघोषित आरक्षण पर नई बहस छेड़ें।
मुंहमांगे पैसे देकर डाक्टरी व इंजीनियरिंग की डिग्री पाने वाले लोग क्या देश की ईमानदारी से सेवा कर रहे हैं ? अगर आरक्षण समाप्त करना है तो पैसे के बूते पर शिक्षा प्राप्त करने पर रोक लगे। देश में समान शिक्षा नीति घोषित हो। केवल मेरिट के आधार पर ही निजी व सरकारी संस्थानों में प्रवेश हो।
इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में भी अघोषित आरक्षण जारी है। मठाधीश का बेटा मठाधीश बनेगा। पुजारी का बेटा ही मंदिर का पुजारी होगा। भले ही वह भ्रष्ट, चरित्रहीन अथवा नैतिक मूल्यों की हत्या करने वाला हो। इसी प्रकार किसी कारखाने का मालिक अथवा संस्थान का मालिक पिता के बाद बेटा ही होता है। भले ही वह अयोग्य अथवा नकारा क्यों न हो ? अब हमें इन सवालों से भी रूबरू होना होगा तथा जनमत को इसके लिए तैयार करना होगा।

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