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शनिवार, 1 जनवरी 2011

नया वर्ष-नयी चुनौतियां

हर बार 365 दिनों के बाद नया साल आता है। इस दिन इंडिया में नये सपने संजोये जाते है। नया संकल्प किया जाता है। खूब मौज मस्ती होती है। होटलों में अनेकानेक कार्यक्रम होते है। पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। लेकिन इसके विपरीत असली भारत अपनी बेबसी पर आंसू बहाता रहता है। वह सोचता है शायद नये साल में कुछ राहत मिले। पर कहां उन अभागों के नसीब, जो उन्हें दो जून की रोटी मुहैया करा सके। एक बात साफ है कि देश में गरीबों को जिंदा रहने का अधिकार लगभग अलिखित विधान के तहत छीना जा रहा है। कथित बुद्धिजीवियों से लेकर उद्योगपतियों तक, सबकी निगाहें सेंसेक्स पर टिकी रहती है। अब कहां गई शस्य शयामला देवभूमि, जिसमें कंक्रीट के जंगल रोपने की तैयारी जोरों पर है। कृषि भूमि पर खेती और गरीब की झोंपड़िया नहीें अपितु मॉल व रईसों के फार्म हाउस बन रहे हैं। लगता नहीं कि नये साल में कोई आमूलचूल परिवर्तन होगा। इस व्यक्तिवादी देश में न किसी को समाज की चिंता है और न ही देश की। जब व्यक्ति का उद्देश्य स्वार्थ में विलुप्त हो जाता है तो उससे अपेक्षा करता मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इस देश में चाहे गांधीवादी हो चाहे श्रीरामवादी, समाजवादी हो या साम्यवादी। सभी बुनियादी मुद्दों से आंखें मूंदे नजर आते हैं। सत्ता के गलियारों में घुसने के लिए यह वाद उनके लिए सीढ़ी है न कि जीवन में आत्मसात करने की विचारधारा। लोगो ने बड़े धूमधाम से नया साल बनाया। देश के कर्णधारों ने नव वर्ष की शुभकामनाएं प्रेषित की। लेकिन अफसोस, कहीं भी उनका वह संकल्प दिखाई नहीं दिया जिससे लोगों के जीवन में भोर की किरण प्रवेश करे। वैसे भी नया साल रईसों के लिए सभी तरीके से कमाए पैसे फूंकने का त्यौहार बन चुका है। अच्छा होता कि नये वर्ष पर राजनेता और नौकरशाह यह कहते कि वह ईमानदार रहेगा। अपने परिवार से परे देश व समाज हित में संघर्ष करेगा। उस जनता के प्रति समर्पित रहेगा जिसने उसे पद, सम्मान व वैभव दिया है। काश! हम नये साल में सकंल्प ले पाते कि अब दहेज दानव की भेंट कोई बहिन नहीं चढ़ेगी। डा. लोहिया के ‘जाति तोड़ो’ आन्दोलन को हम जीवित करेंगे। भ्रष्टाचार के खिलाफ आर-पार की मुहिम चलाएंगे। गरीबों की अस्मत से खेलने वालों को हम नेस्तनाबूद करेंगे। किसी की मुस्कान रूपी दीप्ति छीनकर अपने आशियाने में हम उजाला नहीं करेंगे।

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