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शनिवार, 12 जून 2010

समझ में नहीं आता द रेड साड़ी पर विवाद



स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो द्वारा सोनिया गांधी पर लिखित पुस्तक द रेड साड़ी आजकल विवादों के घेरे में है। सन् 1977 की घटनाओं के आधार पर लिखी गई यह पुस्तक स्पेन और इटली में पहले ही प्रकाशित हो चुकी है। अब उसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हो रहा है। प्रकाशन होने से पूर्व ही कांग्रेस प्रवक्ता सिंघवी ने लेखक को मानहानि का नोटिस भेजकर मुकदमा झेलने की चेतावनी दी है। जबकि इसके विपरीत लेखक का कहना है कि अब तक वह पुस्तक भारत में प्रकाशित नहीं हुई तो वह मनु सिंघवी के पास कैसे पहुंची। वह भी कांग्रेस प्रवक्ता का अदालत में घसीटने की बात कह रहीं हैं। यह मामला निरंतर जोर पकड़ता जा रहा है। इतना तो निश्चित है कि इस वाद-विवाद से इस पुस्तक की बिक्री रिकार्ड तोड़ होेगी। इस पुस्तक में सोनिया गांधी के निजी मामलों को उनकी बिना अनुमति छापने का आरोप है। हालांकि लेखक का मानना है कि उनकी इस पुस्तक के संदर्भ में कभी भी सोनिया जी से बातें नहीं हुई। वह इसे औपन्यासिक जीवनी की संबा देते हैं। उन्होंने जो भी लिखा है। वह उनके अभिन्न सहयोगियों से संवाद पर आधारित है। सवाल यह पैदा होता है कि कोई जीवनी क्या सम्बंधित व्यक्ति की बिना अनुमति के प्रकाशित की जा सकती है।
वैसे विदेशी लेखक सनसनीखेज लेखन में विश्वास करते हैं। उनका अभिमत होता है कि इस तरह की रचनाओं को बड़ी तादात में पाठक मिलते हैं और वह बेस्ट सेलेबल बन जाती है। भारतीय लेखक के विपरीत वहां के लेखक पूर्णकालिक होते हैं। उनकी रोजी-रोटी लेखन पर निर्भर है। विदेशी लेखक विवास्पद विषयों पर पुस्तक लिखकर चर्चा में आ जाते हैं। जेवियर मोरो भी इसके अपवाद नहीं हैं
आज जबकि समूचा विश्व परिवार में परिणित हो गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूलमंत्र लगभग हर लोकतांत्रिक देश ने स्वीकार कर लिया है तो फिर जेवियर मोरो की इस किताब पर इतनी हाय-तोबा क्यों ? इस सच्चाई को राजनीतिज्ञ मनु सिंघवी मानते हांेगे कि किस तरह राजनेता अपने बयानों से मुकर जाते हैं। वस्तुतः लेखन की परीक्षा उसके पाठकों से होती है। अगर यह पुस्तक तथ्यों से प्रतिकूल है तो पाठक उसे खुद ही नकार देंगे।
इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि चर्चा में आने के लिए इस प्रस्तावित पुस्तक पर वाद-विवाद हो रहा है। कांग्रेस प्रवक्ता मनु सिंघवी अपनी सुप्रीमों को खुश रखने का ऐसा कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। इसीलिए उन्होंने लेखक को नोटिस भेजा है। आज की प्रतिस्पर्धा की दौड़ में न तो लेखक पीछे है और न ही राजनेता। लेेखक को किताब लोकप्रिय बनानी है और राजनेताओं को अपने आकाओं को खुश रखना है। इस मामले में भी यही साफ झलकता है।
हकीकत में राजनेताओं का कोई निजी जीवन नहीं होता। वह सार्वजनिक व्यक्तित्व होते हैं। अतः उनपर टिप्पणी करने के अधिकार से कवि अथवा लेखक को वंचित नहीं कर सकते। राजनीति को भी नेताओं का निजी व्यक्तित्व प्रभावित करता है। इस पुस्तक पर बयानबाजी राजनैतिक स्तर पर नहीं होनी चाहिए। अगर इस पुस्तक में कुछ ऐसा छपा है जिसे व्यक्तिगत माना जा रहा है तो इसमें चिंता की क्या बात है। इस निर्णय पाठकों पर छोड़ देना चाहिए।
मर्यादा के बंधन में सभी बंधे हुए हैं। लेखक को भी यह आजादी नहीं दी जानी चाहिए कि वह मर्यादा का हनन करे। किसी भी घटना या मामले को नमक-मिर्च लगाकर प्रस्तुत करने से लेखक की गरिमा का ही ह्रास होता है। अन्य लोगों की अपेक्षा लेखक की समाज के प्रति अधिक जिम्मेदारी होती हैं। अगर इस प्रस्तावित पुस्तक में ऐसा कुछ है तो लेखक को उसमें संपादन कर लेना चाहिए। निजता की आजादी का अतिक्रमण उचित नहीं है।

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