वर्तमान समय मूल्यों के पतन का है। ऐसे समय में रचनाकारों का दायित्व बन जाता है कि वे अपने युगधर्म का निर्वाह करें। यह ब्लॉग रचनाधर्मिता को समर्पित है। मेरा मानना है- युग बदलेगा आज युवा ही भारत देश महान का। कालचक्र की इस यात्रा में आज समय बलिदान का।
गुरुवार, 29 अप्रैल 2010
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध
जैसे पेशेवर वैश्या होती है। पेशेवर गवैये और शिल्पकार होते हैं। वैसे ही कभी समाजसेवा का पर्याय राजनीति विशुद्ध पेशा बन गया है। इस पेशेवर राजनीति में कई राजनेताओं के पूरे परिवार उतर आये हैं। आखिर यह धंधा चोखा है सम्मान के साथ माल भी। इस पेशेवर राजनीति से देश के लोकतंत्र का बहुत बड़ा नुक्सान हुआ है। इस बारे में जनांदोलन होना चाहिए और पेशेवर राजनेताओं को धता बताकर विशुद्ध समाज और देश के हित में काम करने वालों को ही चुनाव में जिताना चाहिए। मंहगे चुनाव के कारण राजनीति में अधिक गंदगी आई है। अब सांसद का चुनाव दसियों करोड़ और विधायक का करोड़ का हो गया है। ग्राम प्रधान और सभासद के चुनाव में भी लाखों रुपये खर्च हो जाते हैं। जब इतना मंहगा चुनाव होगा तो कौन ईमानदार आदमी चुनावी राजनीति में उतरेगा। मंहगे चुनाव से सही आदमी राजनीति में आने से घबराता है। इसलिए राजनीति में धनकुबेरों और माफियाओं का कब्जा हो गया है। यही कारण है कि राजनीति में सिद्धांत नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। चुनाव जीतना ही सिद्धांत और सत्ता पाना ही आज की राजनीति का ध्येय हो गया है।
वर्तमान राजनीति कारपोरेट सेक्टर में बदल गई है। इसमें पूंजीपति, गुंडो और राजनेताओं की जुगलबंदी काम करती है। चुनाव में पैसा पूंजीपति खर्च करते हैं। गुंडों वोटरों को डराते धमकाते हैं और नेताओं सत्ता में बैठकर इनका ख्याल रखते हैं। सिद्धांत अच्छे ध्येय और मंजिल के लिए होते हैं परंतु येन-केन-प्रकारेन सत्ता पाने के लिए नीति और सिद्धांतों की बलि देना आम बात हो गई है।
हमारे देश में राजनीति को कभी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, डा. अम्बेडकर, डा. लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव जैसे त्यागी लोग राजनीति करते थे तो लोगों का सिर श्रद्धा से उनके त्याग और बलिदान को नमन करता था। लेकिन अब तो माने हुए गुंडे, व्यभिचारी और भ्रष्ट संसद और विधानमंडलों में बैठकर इसकी गरिमा को ध्वस्त कर रहे हैं। अगर लोकतंत्र को बचाना है तो अच्छे लोगों को राजनीति में आना होगा बरना यह लोग देश को गर्त में धकेल देंगे।
गंदी राजनीति के लिए केवल नेताओं को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए जनता भी बराबर की दोषी है। गलत लोगों को जनता ही तो चुनकर भेजती है। वह कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर वोट देती है। उसे ईमानदार और सादगीपूर्ण प्रतिनिधि पसंद ही नहीं है। उसे धनवान और vilaasi जीवन शैली का प्रतिनिधि चाहिए। यही कारण है कि देश की संसद में आधे से अधिक अरबपति और करोड़पति सांसद हैं।
जनता ही भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाये
शनिवार, 24 अप्रैल 2010
सेना से ही ईमानदारी की अपेक्षा क्यों
राहुल का 2012 मिशन
बुधवार, 21 अप्रैल 2010
अम्बेडकर के सपनों से खेलते उनके अनुयायी़

’’वे धन्य हैं, जो यह अनुभव करते हैं कि जिन लोगों में हमारा जन्म हुआ। उनका उद्धार करना हमारा कर्तव्य है। वे धन्य हैं, जो गुलामी का खात्मा करने के लिए अपना सब कुछ निछावर करते हैं। और धन्य हैं वे, जो सुख और दुःख, मान और अपमान, कष्ट और कठिनाइयां, आंधी और तूफान-इनकी बिना परवाह किये तब तक सतत् संघर्ष करते रहेंगे, जब तक कि अछूतों को मानव के जन्मसिद्ध अधिकार पूर्णतया प्राप्त न हो जायें।’’
युगांतरकारी व्यक्तित्वों की श्रृंखला में डा. भीमराव अम्बेडकर का नाम अग्रणी है। उन्होंने आजीवन गैर बराबरी तथा मानवता के लिए संघर्ष किया। सदियों से शोषित और उत्पीड़ित दलितों के जीवन में एक नया अध्याय जोड़ा। यह उनके संघर्ष का ही परिणाम है कि आज दलित देश की सत्ता में सक्रिय भागीदारी कर रहे हैं। भारतीय संविधान के माध्यम से उन्होंने दलितों के लिए जो आरक्षण का प्रावधान कराया। उससे ही दलितों के भाग्य का सूूरज उदय हुआ जो आज विभिन्न क्षेत्रों में दैदीप्यमान हो रहा है।निःसंदेह डा. अम्बेडकर दलितों के मसीहा थे। उनके दिलो-दिमाग में दलितों की जाति विशेष न होकर सम्ूपर्ण दलित वर्ग था जो जलालत की जिंदगी व्यतीत कर रहा था। शिक्षित बनो, संगठित रहो तथा संघर्ष करो के मूल मंत्र के आधार पर उन्होंने दलितों में स्वाभिमान की भावना पैदा की। वह राजनीतिज्ञ की अपेक्षा समाज सुधारक थे। उनका जीवन दलितों के उत्थान और विकास को समर्पित था। अफसोस इस बात का है कि उनकी मृत्यु के बाद दलित आंदोलन बिखर गया। वह दिशाहीन हो गया तथा सत्ता के लिए डा. अम्बेडकर के सपनों से बलात्कार करके कुर्सी पाने में अधिक सक्रिय रहा। जिस मनुवाद और ब्राह्मणबाद के वह आजीवन विरोधी थे। उनके कथित अनुयायियों ने उसको फलने-फूलने का अवसर दिया। सत्ता के लिए उनके सिद्धांतों की बलि चढ़ायी। यही कारण है कि आज दलितों का कोई सर्वमान्य नेता अथवा मसीहा नहीं है। अगर हैं भी तो दलितों की जाति विशेष के हैं। दलित आंदोलन के पतन का मुख्य कारण इस वर्ग के नेताओं की दिशाहीनता तथा स्वार्थपरता रही। यह लोग आज भले ही उनकी जयंती जोर-शोर से मना रहे हों लेकिन वस्तुतः वह उनके सिद्धांतों की हत्या कर रहे हैं। यही कारण है कि आजतक दलित वर्ग एकजुट नहीं है। उनका कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। किसी भी दलित राजनेता के पास दलितों के लिए कोई एजेंडा नहीं है। आज भी दलित एक वर्ग के रूप में संगठित नहीं हो पाया है। जिस छूआछात के खिलाफ डा. अम्बेडकर आजीवन लड़ते रहे आज दलित वर्ग भी दलित और महादलित के रूप में विभक्त हो गया है। उनका आपस में कोई तालमेल नहीं है। दलितों में भी ऊंच-नीच की भावना बड़ी तेजी से पनपती जा रही है। लगभग हर दलित जातियों के अलग-अलग संगठन हैं। अपने-अपने आराध्य हैं। अपने-अपने सिद्धांत हैं। अपनी-अपनी परम्पराएं हैं। आखिर जब दलित एकजुट नहीं होंगे तो उनका आंदोलन कैसे चलेगा और कैसे उनकी स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन होगा।दलितों में भी महादलित वाल्मीकि जाति आज भी मनसा-वाचा-कर्मणा से डा. अम्बेडकर को स्वीकार नहीं कर पाई है। उनके आराध्य महर्षि वाल्मीकि हैं। वह हिंदू धर्म की सभी मान्यताओं को मानते हैं और अपने हिंदू होने पर गर्व महसूस करते हैं। इसके विपरीत दलितों की जाटव जाति के लोग हिंदू धर्म से विमुख हैं। वह अम्बेडकर द्वारा अपनाये गये बौद्ध धर्म की विचारधारा के अधिक नजदीक हैं। कोरी, खटीक, धोबी आदि दलित जातियों में अम्बेडकर की विचारधारा आज तक नहीं पहुंची है। इसके लिए वह दलित नेता अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकते जो अपने को डा. अम्बेडकर का अनुयायी मानते हैं। उनके मिशन को आगे बढ़ाने का दावा करते हैं। यही कारण है कि डा. अम्बेडकर जयंती में सम्पूर्ण दलितों की भागीदारी नहीं होती अपितु इसमें जाटव जाति का हर्षोल्लास अधिक दिखाई पड़ता है। दलितों के समाज सुधार का आंदोलन दम तोड़ चुका है। वह दिशाहीन और दिशाभ्रमित है। इसी लिए दलितों में हताशा और निराशा का भाव समाहित है।वस्तुतः दलितों में भी एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है जिसने आरक्षण के माध्यम से ऊंची-ऊंची नौकरियां हासिल की हैं। आरक्षण के कोटे के कारण बड़े-बड़े ओहदे हासिल किए हैं। मंत्री, सांसद और विधायक हैं। यह लोग दलित को मिलने वाले हर लाभ को अजगर की भांति निगल रहे हैं। जिस समाज से यह आये हैं। उस दीन-हीन और वंचित समाज के लिए इनके दिल में संवेदनशून्यता का भाव है। इन पढ़े-लिखे और साधन-संपन्न लोगों ने डा. अम्बेडकर के आंदोलन की हत्या की है। उनके कारवां को रोका है। अगर सुविधाओं से वंचित दलितों की आंखें खुल गई तो वह इस नवधनाढ्य-अफसरी वर्ग को माफ नहीं करेगा।डा. अम्बेडकर व्यक्ति पूजा के खिलाफ थे। वह नहीं चाहते थे कि उनकी पूजा हो। उनकी मूर्तियों लगें और लोग उन्हें भगवान मानें। इस संदर्भ में उन्होंने 14 अप्रैल 1942 में मुम्बई के परेल में अपनी जयंती पर आयोजित विराट सभा को संबोधित करते हुए कहा था - ’’नेता योग्य हो, तो उसके प्रति आदर प्रकट करने में कोई हर्ज नहीं, परंतु मनुष्य को ईश्वर के समान मानना विनाश का मार्ग है। इससे नेता के साथ ही साथ उसके भक्तों का भी अधःपात होता है ? इसलिए मैं चाहता हूं कि मेरा जन्म दिवस मनाने की प्रथा बंद कर दी जाय।’’
आवश्यकता इस बात की है कि अगर डा. अम्बेडकर के जाति-विहीन, शोषणविहीन तथा समतायुक्त समाज की संरचना करनी है तो हमें आत्मचिंतन करना पड़ेगा। इस देश का बहुत बड़ा नुक्सान जातिवाद से हुआ है। समाज जातियों में बड़ी तेजी से बंटता जा रहा है। जातिय संगठन इतने प्रभावशाली हो गए हे कि वह सरकार तक को चुनौती देने लगे हैं। राजनीति जातिवाद के भंवरजाल में फंस चुकी है। शोषक लोग एकजुट होकर लोकतांत्रिक संस्थानों पर योजनाबद्ध तरीके से कब्जा करने में लगे हैं। समानता और समता बेमानी हो गया है। इसके लिए चिंतनशील व संघर्षशील लोगों को आगे आना होगा।
सोमवार, 19 अप्रैल 2010
अपने को बदलो कलमकारों
रविवार, 18 अप्रैल 2010
क्या विधायिका में पत्नियाँ या प्रेमिकाएं होंगी
शनिवार, 17 अप्रैल 2010
कौन खत्म करेगा जातिवाद
उर्दू शायरी में तखल्लुस और कविता में उपनाम की परंपरा
आखिर क्या कारण था कि रचनाकारों को अपना उपनाम अथवा तखल्लुस रखना पड़ा। एक जनवादी कवि जो स्वयं अपना नाम बदल कर उपनामधारी हो चुके हैं। उनका कहना है कि हिंदी में अधिकांश गैर ब्राह्मण कवियों ने ही अपने नाम के पीछे उपनाम लगाये। इसका कारण यह था कि ब्राह्मण को तो जन्मजात् योग्य व विद्वान माना जाता है। अतः उन्हें अपना मूल नाम अथवा जातिसूचक शब्द हटाने की आवश्यकता ही नहीं थी। लेकिन गैर ब्राह्मणों के साथ यह संभवतः मजबूरी रही होगी। यही कारण है कि हिंदी कवियों में बहुतायत में गैर ब्राह्मणों ने ही उपनामों को अपनाया है। महाकवि निराला के बारे में यह स्पष्ट ही है कि उनका पूरा नाम सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ था।
उपनामों के बारे में एक अभिमत यह भी है कि अधिकांश मंचीय लोगों ने अपने उपनाम इसलिए रखे जिससे वह जनता में शीघ्र ही लोकप्रिय हो जाये। लोकप्रियता में उनके मूल नाम आड़े न आयें। यही कारण है कि गोपाल प्रसाद सक्सैना को पूरा देश नीरज के नाम से ही जानता है। व्यंकट बिहारी को पागल के नाम से, प्रभूदयाल गर्ग को काका हाथरसी, देवीदास शर्मा को निर्भय हाथरसी तथा राज कुमार अग्रवाल को विभांशु दिव्याल के नाम से हिंदी मंच जानता है।
हां इसका अपवाद भी है पं. प्रदीप। जिन्होंने अपने द्वारा रचित भजन और फिल्मी गीतों से देश में धूम मचा दी थी। हे मेरे वतन के लोगों जरा आंखों में भर लो पानी.......जैसे अमर गीत के प्रणेता का वास्तविक नाम पं. रामचन्द द्विवेदी था लेकिन फिल्मी दुनियां में यह नाम अधिक लोगों की जुबां पर शायद ही चढ़ पाये इसलिए उन्हें प्रदीप के नाम से ही मशहूरी मिली। हिंदी रचनाकार पाण्डेय बैचेन शर्मा ‘उग्र‘ व चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी‘ आदि ने उपनाम भले ही लगाया हो लेकिन वह अपने ेजातिसूचक शब्दों का जरूर प्रयोग करते रहे। हिंदी में श्यामनारायण पाण्डेय, सोहन लाल द्विवेदी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत आदि ने कभी भी अपनामों का सहारा नहीं लिया और अपने मूल नामों से ही हिंदी जगत पर छाये रहे।
जहां तक उर्दू शायरी का सवाल है। इसमें अधिकांश शायर अपने जन्मस्थानसूचक शब्द का ही अधिक प्रयोग करते हैं। जैसे दिल्ली में जन्मे शायर देंहलवी, आगरा के अकबराबादी, बरेली के बरेलवी, लुधियाना के लुधियानिवी, गोरखपुरी, जयपुरी आदि। इसके विपरीत उर्दू शायरी में ऐसे कुछ ही शायर भी हैं जो अपने जन्मस्थान सूचक शब्द को अपने नाम के आगे लगाने में परहेज करते हैं। जैसे के.के. सिंह मयंक, कृष्ण बिहारी नूर, बशीर वद्र आदि।
मशहूर कवि और कथाकार रावी का वास्तविक नाम रामप्रसाद विद्य़ार्थी था। हिंदी जगत के प्रसिद्ध कवि सोम ठाकुर पहले सोम प्रकाश अम्बुज के नाम से जाने जाते थे। इसी प्रकार डा. कुलदीप का मूल नाम डा. मथुरा प्रसाद दुबे थाा। इसी प्रकार वरिष्ठ गीतकार चौ. सुखराम सिंह का सरकारी रिकार्ड में नाम एस.आर. वर्मा है। निखिल संन्यासी के नाम से चर्चित कवि का मूल नाम गोविंद बिहारी सक्सैना है। इसी प्रकार चर्चित गजलकार शलभ भारती का मूल नाम रामसिंह है। इसी श्रंखला में सुभाषी (थानसिंह शर्मा), पंकज (तोताराम शर्मा), रमेश पंडित (आर.सी.शर्मा), एस.के. शर्मा (पहले शिवसागर थे अब शिवसागर शर्मा), डा. राजकुमार रंजन (डा. आरके शर्मा) कैलाश मायावी (कैलाश चौहान) दिनेश संन्यासी (दिनेश चंद गुप्ता), पवन आगरी ( पवन कुमार अ्रग्रवाल), अनिल शनीचर (अनिल कुमार मेहरोत्रा), सुशील सरित (सुशील कुमार सक्सैना), हरि निर्मोही (हरिबाबू शर्मा), राजेन्द्र मिलन (राजेन्द्र सिंह), पहले रमेश शनीचर अब रमेश मुस्कान (रमेश चंद शर्मा) ओम ठाकुर (ओम प्रकाश कुशवाह) राज (एक का नाम राजबहादुर सिंह परमार है तो दूसरे राज का मूल नाम राजकुमार गोयल ह)
शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010
राहुल भ्रष्टाचार पर चुप क्यों
भ्रष्टाचार के बारे में सारा देश मौन है। लगता है की सबने इस अपराध को स्वीकार कर लिया है। जब हमने अपराध को स्वीकार कर ही लिया है तो विकास के नाम पर नारेवाज़ी क्यों। राहुल गाँधी कहते हैं की उत्तर प्रदेश में मनरेगा सहित केंद्र की अन्य योजनाओं का सही ढंग से क्रियान्वन नहीं हो रहा है। सरकार गरीबों की सुध नहीं ले रही है। उन्हें एक बात माननी होगी की जब केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार को अपराध ही नहीं माना तो उत्तर प्रदेश में क्या गलत हो रहा है। सरे देश में भ्रष्टाचार का परचम लहरा रहा है। विकास के नाम पर भ्रष्टाचार सही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन सेना सहित प्रशासन के सभी अंगों में यह पूरी तरह हाबी है। वस्तुत आज ईमानदार आदमी को घरवाले भी पसंद नहीं करते। समाज में भी उसका स्थान निरंतर नीचे की और जा रहा है। और तो और मालिक भी ईमानदार को पसंद नहीं करते। जो मालिकों का टैक्स बचा सके। उनके काले धंधे को चला सके। रिश्वत देकर उनकी समस्या का समाधान करवा सके। मेरा मानना हैं की देश विदेशी हमले से नहीं अपितु भ्रष्टाचार से गुलाम होगा। आज इस कथित महान देश में हर आदमी बिकाऊ है। संसद, विधायकों को तो जनता ने खुलेआम बिकते देखा है। नौकरशाही इसमें पूरी तरह लिप्त है। न्याय भी बिना पैसे के नहीं मिलता। इससे बड़ा इस देश का दुर्भाग्य क्या होगा जहाँ रिश्वत देकर सेना में सिपाही भर्ती होता है।रिश्वत देकर भर्ती युवा में क्या देशभक्ति की भावना होगी। वह दुश्मन के सामने गोली चलाएगा या पीठ दिखाकर भाग जायेगा। पुलिस में बिना रिश्वत दिए कोई युवा प्रवेश नहीं कर सकता। आजकर डाक्टर और इंजीनीयर भी पैसे देकर तैयार किये जाते हैं। भगवान के दर्शन भी बिना पैसे के नहीं हो सकते। जब सब कुछ पैसा ही है तो फिर इस भ्रष्टाचार पर घडियाली आंसूं क्यों। क्या राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश को कोसने की बजे अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी अभियान छेड़ें तो उनके राजनीतिक भविष्य के लिए अच्छा होगा। लेकिन वह ऐसा नहीं करेंगे। उनकी पार्टी के अधिकांश संसद, विधायक और मंत्री अरबपति और करोडपति हैं। वह यह भी जानते हैं की इतना पैसा बिना बेईमानी के नहीं आ सकता। वह अपनी पार्टी का टिकिट भी उसी व्यक्ति को देंगे जो चुनाव का खर्चा उठा सके। आज उनके साथ जो युवा नेता हैं। वह सब धनी हैं। गरीबी की लड़ाई लड़ने के लिए राहुल गाँधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ भी आन्दोलन करना होगा. परन्तु क्या वह यह साहस कर सकेंगे। क्या राहुल गाँधी अपने पिता के नाना जवाहर लाल नेहरू की तरह भ्रष्टाचारियों को खुलेआम फांसी देने की वकालत करेंगे।
गुरुवार, 15 अप्रैल 2010
आगरा के लाल अर्थात लाल बहादुर हो गए पद्मश्री

आगरा हिंदी प्रमुख केंद्र रहा है। हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में यहाँ के लोगों ने कीर्तिमान स्थापित किये हैं। इसी भूमि पर जन्म लिया है डा लाल बहादुर सिंह चौहान ने . कृशकाय शरीर, लम्बा कद, सादगी भरा जीवन. उन्हें देखकर कोई कह नहीं सकता कि ये हिंदी के जाने-माने साहित्यसेवी हैं. बोलचाल में सरलता. अहंकार दूर तक नहीं। यह रचनाकार लगभग अस्सी पुस्तकों का सर्जक है। कहने को तो वे न्यू आगरा इलाके में रहते हैं लेकिन उनके आस-पास के लोग तब चकित रह गए जब उन्हें अख़बार और दूरदर्शन से एक दिन मालूम पड़ा कि डाक्टर चौहान को भारत सरकार ने शिक्षा और साहित्य में पद्मश्री देने का फैसला किया है। देखते ही देखते वे आम से खास बन गए। डाक्टर साहब केवल साहित्यकार ही नहीं हैं अपितु समाजसेवी भी हैं। वह अन्य लोगों की तरह अपनी महानता और दानवीरता का बखान नहीं करते बल्कि मौन साधक के रूप में अपनी सेवा में तल्लीन रहते हैं। ज़र, जोरू और ज़मीं के लिए हमेशा से संघर्ष होते रहें हैं। लोग एक इंच ज़मीं के लिए जान दे और ले लेते हैं। ऐसे भौतिकवादी युग में डाक्टर चौहान ने अपने एत्मादपुर स्थित ग्राम बमनी में कई बीघा ज़मीं सरकार को स्कूल और चिकित्सालय खोलने के लिए दान कर दी। वह संगीत के भी शौक़ीन हैं। उन्हें देश की कई संस्थाओं से पुरस्कार मिल चुके हैं। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान उन्हें विज्ञानं भूषण की उपाधि से अलंकृत कर चुका है । हिंदी में उन्होंने नाटक, कविता, कहानी, जीवनी, उपन्यास आदि लिखे हैं। अनुगूँज उनका चर्चित काव्य संग्रह है। अभी 7 अप्रेल को देश के महामहिम राष्ट्रपति ने उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया हैं। बयोवृद्ध होने के बाद भी उनका जोश युवाओं को मात कर देता है। उनकी तमन्ना हिंदी साहित्य का शिखर छूने की है। उनके चाचा डॉ शिवदान सिंह चौहान हिंदी के महान आलोचक थे। उनकी प्रेरणा से ही लाल बहादुर इस क्षेत्र में आये। पद्मश्री डाक्टर लाल बहादुर सिंह चौहान का पता ४६ दयाल बाग़ रोड, न्यू आगरा, आगरा तथा मोबाईल नंबर ९४५६४०२२७४ है.
बुधवार, 14 अप्रैल 2010
जबसे तुमने किया किनारा

जीवन कालचक्र है। यह निरंतर चलता रहता है। दिन और रात, मिलना और बिछुड़ना, दुःख और सुख, यश और अपयश इसके पड़ाव हैं। लेकिन कुछ पल या मित्र ऐसे होते हैं , जिनकी याद भुलाई नहीं जा सकती। जीवन में कई ऐसे मित्र आये, जिनके बारे में मैं सोचा करता था की यदि इन्हें कुछ हो गया तो मेरे जीवन के पल कैसे काटेंगे। परन्तु जीवन का रथ निर्ममता के साथ दौड़ता रहता है। उन्हीं बिछुड़े पलों को इंगित करता यह गीत।
जबसे तुमने किया किनारा, टूट गया मेरा इकतारा
सॉस सांस में कम्पन होती, मिटा भाग्य का आज सितारा
हमने तुमने स्वप्न बुने थे, चाँद सितारे भी अपने थे
साथ रहेंगे साथ चलेंगे इक दूजे के लिए बने थे
मधुर मिलन की बंशी बजती, खुशियाँ दरवाजे पर झरतीं
सोना सा लगता था वह दिन उपवन में जब भी तुम मिलतीं
सूरज भी हमसे जलता था, चंदा भी नित नित गलता था
फूलों की मुस्कानें रोतीं, भंवरा हाथों को मलता था
मैंने तुमसे प्रीत बढाई , तुम भी मंद मंद मुस्काई
अम्बर धरती लगे झूमने , रजनीगंधा भी इठलाई
बिखर गए वे सपने सारे, बदल गए नदिया के धारे
अलगावों के बादल छाये बदल गए अब मीत हमारे
रूपसि तेरा रहा पुजारी, लेकिन तुम निकली पाषाणी
होम दिया अपने को तुम पर, रूपनगर की ओ महारानी
तुमने अपने पथ को मोड़ा, गैरों से अब रिश्ता जोड़ा
प्यार नहीं नफ़रत पीऊंगा , यादों में तेरी जीऊंगा
मंगलवार, 13 अप्रैल 2010
हरफनमौला था मेरा यार कमलेश
छलावे के ६३ साल

शिक्षा अधिकार कानून देश में लागू हो गया है। यह योजना या कानून भी कागजों पर दम तोड़ देगा। इस बात की क्या गारंटी है कि निजी स्कूलों में गरीबों के लिए २५ फीसदी स्थान आरक्षित किये जायेंगे। पहले से ही भारी भरकम मुनाफे का शिक्षा उद्योग और अधिक मुनाफा कमाएगा। जब से शिक्षा का निजीकरण किया गया है इसकी गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है। कभी इस शिक्षा जगत में दानवीर, समाजसेवी और विद्यानुरागी आते थे। अब तस्वीर बादल गयी है। विशुद्ध धन्धेबाज इस व्यापार में कूद पड़े हैं। देश के लगभग सभी निजी शिक्षा संस्थान सरकारी अनुदान, वजीफा, पुस्तकालय अनुदान, संसद और विधायक निधि को डकार रहे हैं। इस दुधारू धंधे में यह लोग आज करोड़ों और अरबों में खेल रहें हैं। एक साल में ही बी एड कालेज खोलने वालों ने खूब कमाई की है। अगर केन्द्रीय सरकार वास्तव में देश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाना चाहती है तो उसे क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। उसे पूरे देश में एक शिक्षा प्रणाली लागू करनी होगी। जिस स्कूल में गरीब, किसान, चपरासी के बच्चे पढ़ें उसी में सरकारी अधिकारियों, सांसदों, मंत्रियों के बच्चों की पढाई अनिवार्य करनी होगी। जब किसी सरकारी स्कूल में विधायक, संसद और सरकारी अधिकारियों के बच्चे पढेंगे तो उस स्कूल की शिक्षा अपने आप अच्छी हो जाएगी। लेकिन सरकार में बैठे अरबपति सांसद और मंत्री नहीं चाहते कि उनके बच्चे गरीबों के बच्चों के साथ पढ़ें। समूचे देश में समान शिक्षा व्यवस्था लागू कर दीजिये फिर देश में न तो दलितों को आरक्षण की जरूरत होगी और न ही पिछड़े वर्ग को। परन्तु ऐसा होगा नहीं। यह पूंजीवादी सरकार है जो समाजवाद का नारा तो दे सकती है पर उस पर अमल नहीं कर सकती। आज सरकारी अधिकारियों, सांसदों और विधायकों का स्कूल संचालकों के साथ गठजोड़ हो गया है। इस गठजोड़ की वजह से यह लोग अनाप शनाप कमाई कर रहें हैं। देश की जनता को आज़ादी के ६३ वर्ष तक छला जाता रहा है और यह प्रक्रिया आगे भी जारी रहेगी.